क्या है कुछ भूमि का? क्या है कुछ गगन का? कवि, रचनाकार, कलाकार प्राय: गगन में रहते हैं, पर सच्चाई ये है कि बातें भूमि की ही करते हैं। उनकी कल्पनाएं किसी भी लोक में चली जाएं, लेकिन इसी लोक और लोकतंत्र के बीच की विषय-वस्तु् से जुड़ी रहती हैं। पिछले लगभग दस वर्ष में वाचिक परंपरा के बहुत सारे कवियों से सत्संग हुआ। कुछ ने चाहा कि मैं उनकी पुस्त़क की भूमिका लिखूं। तत्काचल हां तो मैंने नहीं की। निवेदन किया कि पांडुलिपि दे दीजिए, उत्साहित और प्रेरित हुआ तो ज़रूर लिख दूंगा। लगभग साठ प्रतिशत पांडुलिपियों की भूमिका मैंने लिखीं। कुछ समयाभाव होने के कारण और कुछ उत्साहित न होने के कारण नहीं लिख पाया, तो पांडुलिपियां लौटा दीं। इस पुस्तक के लिए मैंने शताधिक भूमिकाओं में से कुछ छांटी हैं। इनमें एक दोष यह हो सकता है कि इनमें दोष-दर्शन ज़्यादा नहीं है। सकारात्मक पहलू ही मैंने उभारे हैं। चलिए समीक्षा का यह रूप भी होना चाहिए कि सकारात्मकक पहलू भी बहुलता में सामने आएं। कुछ भूमिकाएं ऐसी हैं, जिन्हें लिखने में मुझे वाकई आनंद आया और उन कविताओं से मैं प्रभावित हुआ। जैसे श्री रमेश कौशिक की पुस्तक या माया गोविंद जी की।
अपने कुछ अंतरंग साथियों के बारे में भी दो-तीन लेख हैं इस किताब में। जैसे डा. गिरिराजशरण अग्रवाल, डा. हरीश नवल या श्री वीरेंद्र प्रभाकर। ये लेख लिखे गए उन पुस्तिकों के लिए, जो इन व्यतक्तित्वों के ऊपर केंद्रित थीं। तो, यहां भी दोष-दर्शन आपको नहीं मिलेगा। कुछ मिलाकर यह किताब वाचिक परंपरा से जुड़े रचनाकारों के बारे में एक पॉजिटिव चित्रावली है। इनके नेगेटिव मेरे पास रखे हैं। पर याद रखिए, नेगेटिव से ही तो पॉजिटिव बनता है। हो सकता है, अशोक चक्रधर की ये सबसे बोर किताब हो, क्योंकि इसमें सिर्फ प्रशंसाएं हैं। प्रशंसाएं कहां झिलती हैं। ज़िंदा तो निंदाएं ही रहती हैं। कांटा बोला फूल से –अरे फूल मत भूल, उम्र तेरी है चार दिन, मेरी ऊलजलूल। मेरी ऊलजलूल, टूटकर भी ज़िंदा हूं। मुझे प्रशंसा ने मारा है, मैं निंदा हूं। कह चकरू चकराय, अक्ल, अब ये कहती है– नहीं प्रशंसा, निंदा ही ज़िंदा रहती है।
वैसे भी समीक्षा बोर ही करती हैं। समीक्षाओं में निंदाएं हों तो कम बोर करती हैं, पर मैंने प्यांर से सराबोर होकर कविताओं और कवियों के बारे में जो गगनवादी ढंग से लिखा है, आपके सामने है।