अशोक चक्रधर अपनी इस पुस्तक के बारे में कहते हैं कि इन कविताओं में एन.डी.टी.वी. की डिमाण्ड पर माल सप्लाई किया गया है। इस संकलन में ऐसी बहुत सी कविताएं नहीं हैं/ जो उन्होंने परदे पर दिखाईं, लेकिन ऐसी कई हैं, जो अब तक नहीं आईं। कुछ बढ़ाईं, कुछ काटीं, कुछ छीलीं, कुछ छांटीं। कुछ में परिहास है, कुछ में उपहास है, कुछ में शुद्ध अहसास है, कहीं सुने-सुनाए का विकास है, कहीं प्राचीन को नया लिबास है। शुरुआत कैसे हुई वे बताते हैं कि एन.डी.टी.वी. की ओर से नए प्रस्ताव पर उन्होंने कहा- जहां तक मैंने आपकी ज़रूरतें समझी हैं, उनके अनुरूप मेरे पास एक चरित्र बौड़म जी हैं। लक्ष्मण के कॉमन मैन जैसे, और उनके क़िस्से हैं ऐसे कि-सुनें तो हंसें, सोचें तो रोएं!
एन.डी.टी.वी. की शिवानी बोलीं— चलिए शूट करते हैं वक़्त क्यों खोएं?
तो लगभग एक साल तक बौड़म जी अपने विभिन्न रूपों में छोटे परदे पर आते रहे, एक संभ्रांत मज़दूर चेतना से कविताएं लिखवाते रहे। अशोकजी हर कविता में पहले कोई बात बताते हैं और फिर यह बताते हैं कि वह बात उन्होंने क्यों बताई। प्राचीन बोध-कथाओं के समान पहले उनके चुटपुटकु ले जैसी कोई हल्की-फुल्की कहानी है और बाद में उससे निगमित सामाजिक सत्य। पुस्तक के नाम के पीछे यही तर्क सक्रिय है। सभी कविताओं में एक नाटकीय तत्त्व विद्यमान है, जिसके रहते पठन के दौरान दिलचस्प चाक्षुष बिंब बनते रहते हैं। प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग के रेखांकन पुस्तक का विशेष आकर्षण है।