पुस्तक के बारे में कहा गया है कि यह मीडिया नाट्य संकलन है। ऐसा लगता है जैसे अशोक चक्रधर मीडिया नाटक जैसी किसी नई विधा से रूबरू कराने जा रहे हैं। वस्तुतः मीडिया नाटक के रूप में इस संकलन में जहां एक ओर ‘बात पते की’, ‘समझ गया सांवरिया’ और ‘अंगूरी’ जैसे रेडियो नाटक हैं, वहीं दूसरी ओर टी.वी. के लिए बनाई गई छोटी-छोटी हास्य झलकियां हैं, तो तीसरी ओर कुछ टेली-प्ले भी हैं।
हिन्दी साहित्य में रंगमंचीयता के आधार पर नाटकों का विश्लेषण होता रहा है। इस पुस्तक की नाट्य-कृतियों को देखने के बाद आलोचकों को सोचना पड़ेगा कि नाट्य-लेखन को रंगमंच के अलावा मीडिया के विविध रूपों से भी जोड़कर देखा जाए। मीडिया नाटक को मान्यता मिलनी चाहिए।