(कई बार मनुष्य के स्वार्थी मामूली प्रयत्नों से ब्रह्मांड में बड़े-बड़े परिवर्तन हो जाते हैं)
अभी-अभी रात में…
बिना बात मैं
बैंच पर लेट गया पार्क में,
तो खूब सारे तारे दिखाई दिए
डार्क में।
वृक्षों से निकलता हुआ
गगन का विस्तार,
आंखें देख रही थीं
तारों के रूपाकार।
कभी कुंभ कभी मीन
कभी अश्व कभी ख़च्चर
कानों पर मंडरा रहे थे
मच्छर।
सच कहूं
वो मच्छर
आकार में तारों से बड़े थे
मेरे अनढंके अंगों को
काटने पर अड़े थे।
तारे सुकून थे,
मच्छर मुंह लगे हुए ख़ून का
जुनून थे।
दिक्कत के कारण
मैं बड़ी शिद्दत से
आफ़त के मारे
मर्माहत से
अपने हाथ-पैर
हिलाने लगा,
कानों पर मंडराते
मच्छर उड़ाने लगा।
पर अफ़सोस
बड़ा ठोस
कि मच्छर तो बढ़ गए,
पर हाथों के हिलाने से
तारे उड़ गए।