मेरे भीतर बैठे हैं क्षमता के गौतम-गांधी
(महान से महान शक्तियां प्रबल इच्छा-शक्ति से हार जाती हैं)
ओ ठोकर!
तू सोच रही मैं बैठ जाऊंगी रोकर,
भ्रम है तेरा
चल दूंगी मैं फ़ौरन तत्पर होकर।
ओ पहाड़!
कितना भी टूटे हंस ले खेल बिगाड़,
मैं भी मैं हूं, नहीं समझ कोई खिलवाड़।
ओ बिजली !
तूने सोचा यूं मर जाएगी तितली,
बगिया जल जाएगी
तितली रह जाएगी इकली।
कुछ भी कर ले
पंख नए भीतर से उग आएंगे,
देखेगी तू नन्हीं तितली
फिर उड़ान पर निकली।
ओ तूफ़ान!
समझता है हर लेगा मेरे प्रान!
तिनके मेरे बिखराकर कर देगा लहूलुहान!
लेकिन कर्मक्षेत्र में होते जो असली इंसान,
उन्हें डिगाना अपने पथ से
नहीं बहुत आसान।
ओ आंधी!
तूने भी दुष्चक्रों की खिचड़ी रांधी,
भैरव-नृत्यों से तूने मेरी जिजीविषा बांधी।
पीड़ा-सुखिया तू भी सुन ले
मेरे अंदर बैठे हैं क्षमता गौतम गांधी।
अरी हवा!
तू भी चाहे तो दिखला अपना जलवा,
भोले पौधे पर फैला दे मन का मलवा।
कितनी भी प्रतिकूल बहे
पर तू भी मुझसे सुन ले-
पुन: जमेगा इस मिट्टी में
तुलसी का ये बिरवा।