कविता में चाहिए करंट
(कवि कभी शब्दों को छलता है कभी शब्दों द्वारा छला जाता है)
श्रीमानजी बोले—
अब तुम्हारी कविताओं में
नहीं है करंट,
पता नहीं क्या लिखते रहते हो अंट-शंट!
मैंने कहा—
रोज़ाना लिखवाओगे तो ऐसा ही होगा,
पर मैंने वैसा कुछ नहीं लिखा
जो स्वयं नहीं भोगा।
एक ज़माना था जब हर पल
हाथ में झंडा थामे
सड़कों पर चलना चाहता था,
न जाने कितनी छातियों पर
मूंग दलना चाहता था।
आज भी मेरे ख़याल
अच्छे हैं या बुरे हैं,
पर मेरी चिंतन चक्की के दोनों पाट
भरपूर खुरदुरे हैं।
इनमें जैसा दाना डलेगा
वही तो पिसेगा,
वरना दिमाग़ का पाट
दिल के पाट को ख़ामख़ां घिसेगा।
हम तो तुम्हारी भरी-पूरी थाली में
हास्य-व्यंग्य की ज़रा सी अचारी हैं,
ये भी नहीं कह सकते कि
बाकी भोजन बनाने वाले भ्रष्टाचारी हैं।
जो बनाते हैं भ्रष्टाचार-विरोध का
भ्रष्टाचारी भोजन!
बताओ, इस पर क़लम चलाऊं
कितने योजन?
कवि कभी शब्दों को छलता है
तो कभी शब्दों द्वारा छला जाता है,
और ये भी सच है कि
करंट टॉपिक पर लिखने के चक्कर में
कविता का करंट चला जाता है।