कम नहीं है जड़ों की महत्ता
(धरती की पूरी गोलाई पार करके जड़ें दूसरी ओर एक उड़ान में बदल जाती हैं)
किसी अनाहूत गर्जन से
घनीभूत लोहे लंगड़ से,
अंधे बहरे कोहरे से
शोर करते अंधड़ से,
कोमल की भयंकर मुस्कान से
गोल गली के आख़िरी मकान से,
वर्तमान विद्युल्लताओं के
जटिल जंजाल से,
इतिहास के कुटिल कंकाल से,
न तो रुकती है
संकल्पधर्मी उड़ान,
न होता है समय के रथ
के लिए कोई व्यवधान।
न वृक्ष की कोई नस दूखती है,
न उसकी कोई जड़ सूखती है।
मान लो समय का कोई पहिया
गुस्से में ऐंठ जाए,
या कोई उड़ान थककर
डाल पर बैठ जाए,
तब जड़ें ख़ुश होती हैं अपने कृतित्व पर,
वृक्ष के अस्तित्व पर।
लेकिन यदि
पहिए की अगतिक ऐंठ जाए नहीं,
और डाल पर सुस्ताती
उड़ान को और उड़ना भाए नहीं,
तब जड़ों को होती है बहुत बेचैनी,
चेतना हो जाती है कठोर और पैनी।
उसके कोमल रेशे कुलबुलाते हैं,
धरती के नीचे बढ़ते ही जाते हैं
और पार कर जाते हैं
धरती की समूची गोलाई
और दूसरे छोर पर निकलकर
एक उड़ान में बदल जाते हैं।
हां, बड़ी, बहुत बड़ी होती है
आकाश की सत्ता,
पर इससे कम नहीं होती
जड़ों की महत्ता।