हमारी उड़ानें रहें आबाद
(साल भर पहले आज ही के दिन क्रिकेट का विश्व कप जीता था)
बात यही तो ख़ास है,
कि हमारी हर उड़ान की डोर
हमारी जड़ों के पास है।
जब भी अटक जाती है कोई पतंग
वृक्ष के सबसे ऊपर वाले
पत्ते के पास
तो जड़ों में कुछ फडफ़ड़ाता है,
छटपटाहट भले ही ऊपर दिखे
पर संवेदन तो नीचे तक जाता है।
पक्षी जानता है
उसे वृक्ष से कितना ऊंचा उड़ना है,
आकाश से किस सीमा तक जुड़ना है।
व्योम उसका वर्तमान व्यतीत है
वृक्ष उसका निकट अतीत है,
भले ही सीमातीत हो आकाश
पर अपनी जड़ों पर टिका वृक्ष
उसका सच्चा मीत है।
एक बात नहीं जानती
पंखों की प्रविधि,
आकाशीय उड़ान के तरंग संदेशों
और जड़ों के रेशों
के बीच आती है धरती की परिधि।
जिस पर जब हम चल रहे होते हैं
तब वह भी चल रही होती है।
जीवन-क्रीड़ा के अनवरत सम्मान में,
एक बॉल अंतरिक्ष के विराट मैदान में।
क्रिकेट विश्व कप का एक साल,
रह रह कर उठाता रहा सवाल।
कुछ फिक्सिंग कुछ फुलटॉस
कुछ गुगलियां,
फिर भी अच्छी लगती रहीं
युवाओं के गालों पर छपीं
जड़ों से जुड़े तिरंगे की तीन उंगलियां।
हमारी उड़ानें रहें आबाद,
हमारी जड़ें ज़िन्दाबाद!!