हास्य तो रमता जोगी है
—चौं रे चम्पू! मेरौ सवाल जे ऐ कै हम हिन्दुस्तानीन में हास्यबोध कित्तौ ऐ?
—जवाब ये है चचा कि हास्यबोध तो भरपूर है, पर उसमें क्रोध का छोंक लगता रहता है। हास्य को हास्य की तरह नहीं लिया जाता, उसको सामाजिक कुंठाओं, राजनैतिक आग्रहों-दुराग्रहों,व्यक्तिगत ईर्ष्याओं, अनपेक्षित-अपेक्षाओं के साथ जोड़ दिया जाता है। कुछ तरफ़ से आंखें मूंद ली जाती हैं, कुछ तरफ़ बटेर से भी ज़्यादा चौड़ी कर ली जाती हैं। कुछ तरफ़ से नटेर ली जाती हैं, कुछ तरफ़ हास्य के उत्तर में दुनाली तान दी जाती हैं। हमारे देश में अगर सर्वोच्च पूंजीपति विलास करें तो उस पर एक गिलास भी क्रोध नहीं आता, लेकिन अगर राष्ट्रपति का परिवार घूमने-घामने चला जाए तो हाय-तौबा मच जाती है। दूसरी तरफ अमरीकी हैं जो खुद पर भी मज़ाक करना जानते हैं।
—तू अमरीका कौ पैरोकार कब ते है गयौ?
—कुछ बातों की तारीफ़ तो की ही जा सकती है। चचा, अमरीका में हर साल वहां की संवाददाता परिषद् के तत्वावधान में व्हाइट हाउस में एक डिनर हुआ करता है। यह सिलसिला पिछले अठानवै वर्ष से चल रहा है। इस भोज की परम्परा ये है कि राष्ट्रपति स्वयं पर व्यंग्य करता है, स्वयं पर हंसता है। जिन बातों के लिए दूसरे लोग उसका मज़ाक उड़ा सकते हैं, वह मज़ाक वह खुद परख़ुद ही कर लेता है। मैंने यू-ट्यूब पर राष्ट्रपति ओबामा का बत्तीस मिनट का भाषण सुना। क्या राजू श्रीवास्तव लटके दिखाएंगे जो पूरे नाटकीय अभिनय के साथ ओबामा ने नहीं दिखाए। दूसरे लोगहंस रहे थे तो वे स्वयं बिलकुल नहीं हंसे। ये मंजे हुए हास्यकार का कौशल होता है। जब सब हंस चुकें तब स्वयं हंसकर अपनी बात का मज़ा लेना भी एक सहजानंद है। ठहाकों की हिलोर पर हिलोर आती रहीं। आते ही अपने भाषण में ओबामा ने कहा, अरे! आप सोच रहे होंगे कि मेरी दो बेटियां कहां हैं! वे एयरफोर्स वन हवाई जहाज में सफ़र कर रही हैं। यानी, इससे पहले कि कोई उन पर उंगली उठाए कि भैया अमरीका के शासकीय विमान में तुम्हारी बेटियां सैर कर रही हैं, राष्ट्रपति ने खुद ही अपने ऊपर व्यंग्य कर लिया।
—जामें का बड़ी बात है गई?
—चचा तुम्हारा हास्यबोध भी कमज़ोर है!
—बड़े लोगन की बड़ी बात। हम तौ हर तरियां ते कमजोर ऐं।
—चचा इस बात की तो तारीफ़ करो कि वह देश अपने राष्ट्रपति को इतनी छूट देता है कि उसकी बेटियां भी उस एयरफोर्स वन हवाई जहाज में, जहां उसके ऊपर भी दस हवाई जहाज उड़ते हैं, आनंद कर रही हैं और राष्ट्रपति देश के लिए व्यस्त है। अजीब मुल्क है हमारा, हंसने की बात पर हम हंस नहीं सकते। हमारे राजनेता तो एक ऐसी कृत्रिम ओढ़नी ओढ़ लेते हैं जिसमें हंसी मुश्किलसे घुसती है। हंसी की हवा का एक झोंका भी अंदर नहीं जा सकता। तुम्हें तो बड़ा गंभीर दिखना चाहिए।
—कैसी बात करि रह्यौ ऐ रे, कविसम्मेलनन में तुम लोग कित्तौ मजाक बनाऔ, सब हंसैं बिचारे।
—पहले होता था। कविसम्मेलनों में नेता लोग बैठे रहते थे। अपनी निन्दाएं सुनते थे और उनका मज़ा भी लेते थे, पर धीरे-धीरे हुआ ये कि हास्य का स्तर भी गिरा और उनकी सहनशक्ति का सूचकांक भी गिर गया। हंसी अपचनीय होने लगी। एक कवि थे दिलजीत सिंह रील, उनकी दो पंक्तियां थीं ‘एक नेता कहीं खो गया है, साला कहीं आदमी तो नहीं हो गया है!’ इनमें किसी नेता का नाम नहीं है, फिर भी कई जगह मैंने देखा कि नेता नाराज़ होकर उठकर चले जाते थे।
—हास्य कौ मतलब गारी थोरेई ऐ?
—तुम्हारी बात भी ठीक है। माना हमारा हास्य-व्यंग्य भी पटरी से उतरा हुआ है, लेकिन हास्य तो रमता जोगी है उसको क्या लेना-देना सत्ता से, पद से, पैसे से! कोई प्रलोभन नहीं होता हास्य का। अमरीकी हल्की-फुल्की बातों को हवा में उड़ाना जानते हैं और हम हवा में से हल्के-फुल्के पंख को भी पकड़कर कटार बना लेते हैं। आते-आते आएगा हंसना। विकासशील से विकसित तो हो गए हैं, पर उल्लसित और हसित नहीं हो पाए हैं।
—गरीब कूं हंसाऔगे तब बनैगौ भारत सचमुच कौ खिलखिलातौ भयौ देस। सुनीं कै नायं?