देश की कन्या के तीखे प्रश्न
(पुरुष ज़रा मौन रहकर सुने, तत्काल उत्तर न दे… और भी सुनना होगा)
समझ पाए नहीं मुझको
सदा डरते रहे मुझसे,
इसी कारण दबाया
बस घृणा करते रहे मुझसे।
तुम्हारा मन मेरे मन को
नहीं हरगिज़ समझ पाया,
तुम्हारे वास्ते तो थी
महज़ स्पंदनी काया!
ये माना, मैं प्रकृति की कल्पना के
काव्य की काया,
ये माना, मैं मही पर महत्तम
महिमामयी मनमोहिनी माया,
ये माना, रूप की मैं
चिलचिलाती धूप हूं लेकिन
धकेला कूप में तुमने
समझ कर एक सरमाया।
कठिन कर्तव्य कर्मों के गिना कर
हक़ कुतर डाले,
सहज उन्मुक्त मैं उड़ ही न पाऊं,
पर कतर डाले।
मगर निज स्वार्थ में कुछ बेचते
तो चित्र मेरा छापते हो तुम,
मेरे सौन्दर्य को
सम्पत्ति अपनी मानकर
आपादमस्तक, नख से शिख तक
लालची अपने लचीले,
फालतू फीतों से
मुझको नापते हो तुम!
न हो जाए कहीं पर किरकिरी,
यह भय तुम्हारी अस्मिता में
किरकिराता है,
मुझे मालूम है
डरता जो अंदर से
वही बाहर डराता है।