चढ़ाई पर रिक्शेवाला
(जो हथेलियों के कसाव से रिसते पसीने जैसी ज़िंदगी जीता है)
तपते तारकोल पर
पहले तवे जैसी एड़ी दिखती है
फिर तलवा
और फिर सारा बोझ पंजे की
उंगलियों पर आता है।
बायां पैर फिर दायां पैर
फिर बायां पैर फिर दायां।
वह चढ़ाई पर रिक्शा खैंचता है।
क्रूर शहर की धमनियों में
सभ्यों की नाक के रूमाल से दूर
हरी बत्तियों को लाल करता
और लाल को हरा
वह चढ़ाई पर उतर कर चढ़ता है,
पंजे से पिंडलियों तक बढ़ता है।
तारकोल ताप में
क्यों नहीं फट जाता
बारूद की तरह
क्यों नहीं सुलगता वह
घाटियों चरागाहों
कछारों के छोर तक?
रिक्शे के हैंडिल पर
कसाव की हथेलियों से
रिसते पसीने जैसी ज़िंदगी जीता है,
कई बरसातों और
चैत बैसाखों में तपे भीगे
पुराने चमड़े से हो गए चेहरे पर
चुल्लू की ओक लगा
प्याऊ से पीता है।
आस्तीन मुंह से रगड़
नेफ़े से निकाल नोट
गिनता है बराबर,
मालिक के पैसे काट
कल उसे करना है घर के लिए
दो सौ रुपल्ली का मनिऑडर।