बोलो फिर क्या होता जी!
(क़ानून न होता तो क्या होता? क़ानून हैं, तभी तो अपराधी अंदर हैं।)
सोचो गर दुनिया में
क़ानून न होता जी,
तो क्या होता तो क्या होता
फिर क्या होता जी?
बोलो फिर क्या होता जी?
कोई न किसी से भी डरता,
जो मन में आता सो करता,
अपराध किया करता जो भी
वो दंड नहीं उसका भरता।
अपराधी तो खुलकर हंसता
सच्चा रोता जी।
सोचो गर दुनिया में
क़ानून न होता जी!
अंधी नगरी चौपट राजा,
तू भाजी टके सेर खाजा
सम्मान चोर का माला से,
सज्जन का बजा दिया बाजा।
सूली पर देते टांग उसे,
सद्भावी जो था जी।
अरे सोचो गर दुनिया में
क़ानून न होता जी!
न्यायालय करता है देरी,
चल जातीं कुछ हेराफेरी,
क़ानूनों का अज्ञान और
लापरवाही तेरी-मेरी,
इनके कारण ही अपराधी,
अब चैन से सोता जी।
पर सोचो गर दुनिया में
क़ानून न होता जी,
तो क्या होता तो क्या होता
फिर क्या होता जी?
अधिकार और कर्तव्यों पर
मत मारो गोता जी?