बादल से बोली बदली–
ये उतावली नहीं भली!
मुझे छोड़ कर भागा जाता
किस रस्ते अनजान गली?
बादल बोला— ओ बदली!
मैंने राह नहीं बदली।
तेज़ हवा ले जाए जिधर
वो मेरी मंज़िल अगली।
बदली को आया गुस्सा
बादल को मारा घिस्सा–
दुष्ट हवा कैसे लेगी
मेरा हक़ मेरा हिस्सा?
मुझको अपनी कहता है,
और…. संग हवा के बहता है।
अरे, वो तेरा कुछ भला करेगी
किस ग़फ़लत में रहता है?
प्यासा मरुथल तरसेगा,
तुझसे ही तो सरसेगा।
संग हवा के लगा रहा तो
क्या सागर पर बरसेगा?
मुझको अंग लगा ले तू
अपने संग मिला ले तू
हिला न पाएगा कोई भी
अपना वज़न बढ़ा ले तू।
बदली जी को जमा गई
बात अकल की थमा गई
बाहें फैलाईं बादल ने
बदली उसमें समा गई।
दोनों गए प्रेम में डूब,
दोनों मिलकर बरसे खूब,
फिर कुछ दिन के बाद दिखी
मरुथल में हरियाली दूब।