संकलन की रचनाएं प्रायः कवितात्मक वृत्तचित्र हैं, इनमें ज़िंदगी के विविध प्रकार के घटित को समझ-सोच-महसूसकर संपादित किया गया है। व्यंग्य की पार्श्व-ध्वनि और सच्चाई के निर्देशन में यहां जीवन के विभिन्न पहचान-दृश्य हैं। टूटते हुए, जूझते हुए, जुड़ते हुए, जीते हुए आदमी के, उसकी शोषण स्थितियों के, उसके चढ़ते ताप के, उसके उतरते चेहरे के, गहरे पहचान-दृश्य गढ़ते हैं अशोक चक्रधर।
अपनी कविताओं में कवि निज अनुभवों और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने में जिन शब्दों का प्रयोग करता है, वे शब्द कविता नहीं होते बल्कि वे शब्द संके त करते हैं, उस जीवन-परिवेश की ओर, उस घटनाकाल एवं स्थल की ओर, जहां हमारी मुलाकात कविता से होती है। जहां हम विभिन्न ध्वनि-संकेतों को मूर्त होते हुए देखते हैं।
अशोक चक्रधर की ये कविताएं उस दौर की हैं, जब अकविता दम तोड़ रही थी और प्रगतिशील कविता थोथी नारेबाज़ी से हटकर जीवन की स्तविकताओं से दो-चार हो रही थी। इन कविताओं का विस्तार भारत के गांवों, क़स्बों और महानगरों की समस्याओं, तकलीफ़ों, विसंगतियों से गुज़रता हुआ वियतनाम और अमेरिका तक पहुंचता है।
कविता खचेरा एक फंतासी है। भारतीय छोटे किसान की करुण कहानी है, सहज संप्रेषण है, एक विस्तार है, एक सच्चा और ज़िंदा इतिहास है। ‘गरीबी है – सो तो है / भुखमरी है – सो तो है / होतीलाल की हालत ख़स्ता है / सो तो ख़स्ता है। / उनके पास कोई रस्ता नहीं है / सो तो है। / पांय लागूं, पांय लागूं बौहरे / आप धन्न हैं, / आपका ही खाता हूं / आपका ही अन्न है। / सो तो है खचेरा! / वह जानता है / उसका कोई नहीं है, / उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है / सो तो है।’
जैसे वृत्तचित्रों में कैमरे के पीछे से एक दृष्टि झांकती है, उसी तरह इन कविताओं में से मानव के अभ्युदय की कामना-दृष्टि झांकती है। बतकही के अंदाज़ में लिखी गईं इन कविताओं में एक कथात्मकता रची-बसी है। यही बात एक ख़ासियत के रूप में ढलकर हमारे सामने है। इस पुस्तक के अंत में अशोक चक्रधर की चौदह प्रेम कविताएं भी हैं।