ये धुआं-सा कहां से उठता है!
(मारिश उर्फ़ पुन्नू की याद में)
नया-नया ज़माना था
ग़ज़लों के चलन का,
हमने भी एल० पी० ख़रीदा था
मेंहदी हसन का।
ग्रामो़फ़ोन लगाकर ड्राइंग-रूम में,
ग़ज़लें सुना करते थे फ़ुल वॉल्यूम में।
एक ग़ज़ल तो इस क़दर भाई,
कि दिन में बीस बार लगाई—
‘देख तो दिल कि जां से उठता है,
ये धुआं-सा कहां से उठता है!’
हमारे पड़ोस का
छोटा-सा पुन्नू भी गुनगुनाता था,
तोतली बोली में ग़ज़लें सुनाता था।
अचानक पुन्नू को
न जाने क्या हुआ,
मेरा कुरता खींचकर चीखा— धुआं!
मैंने सोचा कोई आफ़त आई,
पर उसने खिड़की से बाहर
पावर हाउस की चिमनी दिखाई।
मालूम है
इसके बाद हमारा पुन्नू
क्या कहता है—
अंतल, अंतल
ये धुआं छा
यहां छे उठता है!!
बात है ये पैंतीस साल पुरानी,
पुन्नू पंद्रह साल पहले ही
बन गया कहानी।
युवा तेजस्वी चित्रकार,
सड़क पार करते वक़्त
काल बन गई एक कार।
धुएं की उपस्थिति कहां-कहां होगी?
प्यारे पिता सलीम
प्यारी मां गोगी!