अंदर की क़ुदरत ने ख़ज़ाने खोले
(अंदर की क़ुदरत की ग़ज़ल तेवर बदलती रहती है नए नए)
मेरे अंदर की क़ुदरत ने
ख़ज़ाने किस क़दर खोले,
अभी गरमी, अभी सरदी,
अभी बारिश, अभी ओले।
किताबों में ख़ुद अपनी ही
कहानी पढक़े ऐ बंदे,
कभी मुस्का, कभी हो ग़मज़दा
हंस ले, कभी रो ले।
पहनकर बादलों के वस्त्र,
आया था जो कल मिलने,
बरस कर हो गया नंगा,
पहन ले फिर नए चोले।
खुली आंखों से, सपने
छलछला कर गिर नहीं जाएं
तू सपनों की हिफ़ाज़त के लिए,
कुछ देर तो सो ले।
बहुत प्यासा परेशां है
विरह के इस मरुस्थल में,
नहीं बरसात आएगी, तू
आंसू की फ़सल बो ले।
सितम होगा, कि तम होगा,
कि ये होगा, कि वो होगा,
डराता है हमें क्योंकर,
जो होना है अभी हो ले।
पहाड़ो, तुम ज़रा इन
बादलों पर भी नज़र रखना,
न कोई बेहया पागल
फ़िज़ाओं में ज़हर घोले।
न जाने कितनी बातें थीं,
न जाने कितने शिकवे थे,
हुआ जब सामना उनसे,
न वो बोले न हम बोले।