ताउम्र इकसठ का नहीं होने वाला
(मेरी षष्ठि-पूर्ति पर, जन्म-दिन 8 फरवरी 1951)
साठ साल का इंसान
ख़ूब वज़न ढो चुका होता है
थककर ख़ूब सो चुका होता है
काफ़ी मेहनत बो चुका होता है
पा चुका होता है खो चुका होता है
अकेले में ख़ूब रो चुका होता है,
चुका हुआ नहीं होता
सब कुछ कर-चुका हो-चुका होता है।
ठहाके लगाता मुस्कुराता है
ज़माने से मान-सम्मान पाता है,
तब लगता है उसे कुछ नहीं आता है।
शिकायतों को पीना जानता है,
अब आकर जीना जानता है।
जवान नहीं होता बच्चा होता है
सोच में कच्चा पर सच्चा होता है।
ये झरना ख़ुद झरना नहीं चाहता,
ऐसा-वैसा करके मरना नहीं चाहता।
दिल खोलता है हमउम्रों के साथ
जी तो उसका भी डोलता है,
चाय में ज़्यादा चीनी नहीं घोलता है।
साठा राजू वक़्त की तराजू होता है,
सच उसके आजू-बाजू होता है।
आईने में झुर्रियां देख घबराता है,
लेकिन बस-अंत को बसंत बनाता है।
जवानी तो एक खोया हुआ मोती है,
उसकी उम्र बच्चों की मुस्कान में होती है।
बेल्ट में आगे तक छेद कराता है,
ठीक से दाढ़ी नहीं बनाता है।
नज़र सौ तरफ गड़ाई होती है,
उसकी ख़ुद से ज़्यादा लड़ाई होती है।
गुरूर मर जाता है
फिर भी अगर मगरूर होता है
तो बड़ी जल्दी चूर-चूर होता है।
रज़ाई में यादें हरजाई सोने नहीं देतीं,
सिटीजन को सीनियर होने नहीं देतीं।
आज ठाठ से हो जाएगा साठ का!
ताउम्र इकसठ का नहीं होने वाला
आपका ये लल्लू काठ का!!