सितार की रग और अहसास के राग
(बहुत पहले स्व. निखिल बनर्जी को सुनते हुए)
अहसास की रग
सितार का तार हो गई।
हर बार
गूंज की भी गूंज की भी गूंज,
कोई एक आत्मालाप
छूती हुई उंगली का छूटा हुआ तार,
सितार की रग या अहसास का तार?
हर बार
गूंज की भी गूंज में से।
हवा के हर कंप को
मथ-मीड़ता स्वर
कहता यों स्वर से स्वर—
झरने के पैरों की तरह गिर
हहराती नदी में सहमे हुए
पत्ते की तरह तिर।
धीरे- धीरे नदी में उतर
फुरफुरी को पहन।
फुनगी पर भंवरे का नाच-नाच
धीरे- धीरे पेड़ से उतर।
ऐसा कर
कह एक ही बात कई-कई बार।
अहसास की रग
मानो सितार का तार।
है बहुत मुश्किल मगर हो जाय,
मान लो स्वर
खेत के खलिहान के घर जाय।
घंटियां बांधे हवा का
बाजरे के खेत न जाना,
बाली-बाली से टकराना,
और टकराते-निकल आते
लाख-लाख दानों का
कांसे की थाली पर बिखर जाना,
झाला…. तराना।
तार का रग अहसास
सितार की रग
अहसास के बहुत पास राग।