राना था गेहूं का दाना
(मस्तिष्क की मशीन में अजब-गजब गड़बड़ियां हो जाती हैं कभी-कभी)
हमारे एक दोस्त थे— रामलाल राना,
ख़ुद को समझने लगे गेहूं का दाना।
जहां कहीं मुर्गा दिखे, डर जाएं—
ये तो हमें खा लेगा, जीते जी मर जाएं।
जहां कहीं बोरा दिखे घबराएं, बिदक जाएं—
कोई इसमें हमें भर लेगा,
बोरा बंद कर देगा।
और आटे की चक्की पड़ जाए दिखाई,
वहां से तो भाग लेते थे राना भाई,
यहां हो जाएगी हमारी पिसाई।
डॉक्टर ने समझाया— डियर राना!
तुम्हारे दो कान हैं दो आंख हैं
दो पैर हैं दो हाथ हैं चलते हो बोलते हो
कैसे हो सकते हो गेहूं का दाना?
पर राना नहीं माना।
गर्मी गई, शीत गया,
एक वर्ष बीत गया।
एक दिन राना डॉक्टर से बोला—
चलता हूं बोलता हूं सुनता हूं तकता हूं
गेहूं का दाना कैसे हो सकता हूं?
डॉक्टर खा गया सनाका,
संदेह से राना की आंखों में झांका।
दृष्टि थी मर्मभेदी,
पर भरोसा हो गया तो छुट्टी दे दी।
आध घंटे बाद ही राना फिर आया,
हांफता हुआ और घबराया घबराया।
डॉक्टर ने पूछा— क्या हुआ भई राना!
क्या फिर से हो गए गेहूं का दाना?
—नहीं, नहीं, मैं बेहद परेशान हूं,
मैं समझ गया कि इंसान हूं,
मेरे पास आदमी की काया है,
पर अभी यह तथ्य
मुर्गे की समझ में नहीं आया है।