राम जाने क्या पूछे सिपइया
(डर हमारे नागरिक कर्तव्यों में आड़े आता है और हम यों ही तिरछे हुए रहते हैं।)
देखा मैंने एक आदमी
पड़ा सड़क के बीच में,
खाई चोट
कराह रहा था,
सना हुआ था कीच में,
जाने क्या झंझट हो भइया
जाने कैसा लफड़ा हो
खिसक लिया
अनदेखी करके,
बना उस घड़ी नीच मैं!
राम जाने
क्या पूछे सिपइया।
दइया रे दइया।
एक दिवस की बात बताता,
बिना किसी संकोच के,
गुंडा छेड़ रहा लड़की को,
दोनों हाथ दबोच के।
मदद करो
वो लड़की बोली,
पर न कोई आगे आया
मैं भी अपने घर को भागा,
मन में इतना सोच के—
ये ज़माना बड़ा ही
निरदइया।
दइया रे दइया।
कल्ल करेंगे बात
मामला
ये बेहद गम्भीर है,
इन दृश्यों को देख
अगर तू
होता नहीं अधीर है,
तो फिर
तुझसे बात करें क्या
ओढ़ें आज
रजइया!
भइया रे भइया!!