प्रसंग फूल और कांटे का
(कांटे ने कही फूल की और फूल ने कही कांटे की बात)
कांटा बोला फूल से
अरे फूल मत भूल,
उम्र तेरी है चार दिन
मेरी ऊलजलूल!
सचमुच ऊलजलूल
टूट कर भी ज़िंदा हूं,
तुझे प्रशंसा ने मारा है
मैं निंदा हूं।
सुन कांटे की बात
अक़्ल अब ये कहती है—
नहीं प्रशंसा
निंदा ही ज़िंदा रहती है।
कहा फूल ने शूल से
ऐसी भी क्या उम्र!
रह-रह कर चुभते रहो
इस-उसको ताउम्र।
किस-किस को ताउम्र
बांट कर इतनी पीड़ा,
कांटे! तेरी ख़त्म न होगी
कुत्सित क्रीड़ा।
कांटा बोला— जिसको भी
चुभ जाता हूं मैं,
कुछ भी कह ले
तेरी याद दिलाता हूं मैं।
कांटे भी थे फूल से
था वो मेरा गांव,
तलवे ज़ख़्मी हो गए
रख फूलों पर पांव।
फूलों पर रख पांव
कष्ट होता है मन को,
होता है मन बड़ा
समझते हैं हम तन को।
असल बात है कोई भी हो
ख़ुशियां बांटे,
कांटा ही निकाल सकता है
मन के कांटे।