एक बात रह-रह कर ज़ेहन में उठती है कि हमारे देश में वेदना में कमी आई है या संवेदना में। संवेदना तो कभी मरती नहीं है, ऐसा हम समझते हैं। कई बार ऐसा होता है कि संवेदना के स्रोतों के ऊपर यथार्थ के पत्थर रख दिए जाते हैं। ढंक दिया जाता है संवेदना को। संवेदना की स्रोतस्विनी मर जाती है। क़ाली हकीकतों को देखकर डर जाती है। ऐसे में, क्या ज़्यादा है, वेदना या संवेदना? हर कोई चाहेगा कि संवेदना ज़्यादा हो, लेकिन अख़बार, समाचार, मीडिया, वेदना के अलावा क्या देते हैं?
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