कवि जब कविता बनाता है तो अपनी निगाह तीन सौ साठ डिग्री घुमाता है। अपनी धुरी पर खड़े-खड़े घूमता है, देखता है। जो देखता है उसको अन्दर ले जाता है और अन्दर जो कुछ होता है उसमें घुला-मिला कर उसको फिर से बाहर लाने की कोशिश करता है। कई बार स्वयं भ्रम में पड़ जाता है। कभी भ्रम में पड़े हुए लोगों को भ्रम से निकालने की कोशिश करता है। शब्दों का जाल बुनता है। मेरे अन्दर बैठे कवि ने पाया कि बुद्धिजीवी इन दिनों कुछ भ्रम में हैं। भ्रष्टाचार है, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई भी है। लड़ाई के अन्दर भी लड़ाई है। अनशन हैं, अनशन टूटती हैं, मन टूटते हैं, संकल्प टूटते हैं, राजनैतिक इच्छाएं प्रकट होती हैं, और ग़रीब ठगा सा रह जाता है। क्या करे बेचारा, समझ नहीं पाता है। समझिए कि गरीब को कोई वाणी मिली और वह अपनी कल्याणी चेतना से देख रहा है।
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