(बुद्धिजीवी संशय में हैं, चारों ओर भ्रष्टाचार का अंधेर है, और बेचारा ग़रीब, वह क्या करे?)
बुद्धिजीवी भ्रम में,
परम जिज्ञासू हैं।
अकर्मक चिंता में,
नितांत मरासू हैं।
कहीं क्यों सुविधाएं,
भयानक धांसू हैं।
कहीं दुख-पर्वत के,
न थमते आंसू हैं।
आंसू, आंख तरेर!
लिया उनको संशय ने घेर!!
तलैया, पोखर है,
नदी है, जाने क्या?
महत्तम लोगों पर,
महा-अभियोग लगे।
लघुत्तम मूल्यों के,
निरंतर भोग लगे।
राज-व्यक्तित्वों को,
करप्शन रोग लगे।
चले केवल अपनी,
इसी में लोग लगे।
चौतरफ़ा अंधेर!
हुई है सामूहिकता ढेर!!
दुखों की गठरी-सी,
लदी है जाने क्या?
ग़रीबों का रोना,
भला किसने देखा?
उठ रही ऊपर को,
ग़रीबी की रेखा।
न आएगी नीचे,
बोलता है लेखा।
चाहिए तुझको भी,
बंधु, तू भी ले खा—
भ्रष्टाचारी बेर!
लिया सट्टेबाज़ों ने घेर!!
शर्त इस जीवन से,
बदी है जाने क्या?