मिस्टर आंग्ल फ़ारसी भोले उवाच
(कबिरा संस्कृत कूप-जल, भाखा बहता नीर। भाषा, जिसमें कितनी ही नदियां मिलती हैं।)
मिस्टर आंग्ल फ़ारसी भोले,
प्रॉब्लम्स का खुलासा करते हुए बोले—
यों तो भाषा
डायलॉग का फ़क़त एक ज़रिया है,
पर इस संदर्भ में
लोगों का छिन्न-भिन्न नज़रिया है।
जैसे, भाषा नदी का बहता नीर है
या ठहरा-गहरा कूप का जल,
कम्युनिकेशन की प्यास कितनी मिटी
बात ये है असल!
मैं तो मानता हूं
कि कबीर ने जिस पानी से
समय की हांडी में
खिचड़ी पकाई थी,
पढ़े-बेपढ़े सबने खाई थी।
तुम आज के स्वादिष्ट रगड़ापेटिस पर
मुंह क्यों बिगाड़ते हो,
पंचनद के बहते नीर की तौहीन करके
दांत क्यों फाड़ते हो?
कल्पना करो
आज अगर कबीर होते,
तो बताओ हिंदी के दोहों में
शब्दों को वे किस तरह पिरोते?
केस न क्राइम को बना
क्राइम पर कर केस।
भेस न साधू सा बना
साधु सजे हर भेस॥
रेस न जीवन को बना
कर जीवन में रेस।
ऐश इमारत मत बना
जहां रहे कर ऐश।।
बेसन में मक्का मिला
हर दिल में कर बेस।
फ़ेस न अपना चेंज कर,
चेंज सभी कर फ़ेस।।