मैड्रिड के ड्राइवर को दिल से शुक्रिया
—चौं रे चम्पू! सुनी ऐ कै तू बिदेस यात्रा ते आयौ ऐ अबी!
—हां चचा, गया था स्पेन। लगभग धाई छूकर लौट आया हूं। किसी देश को जानने का जितना न्यूनतम मौका चाहिए, उतना मिला नहीं। स्पेन जाते समय इस पेन से गुजर रहा था कि समय बहुत हीकम है, चौदह की शाम को पहुंचा सोलह की सुबह को वहां से चल भी दिया। सत्रह को एक कार्यक्रम के लिए
मुम्बई लौटना था, लेकिन जितना भी समय मेरे पास था, उसका मैंने अधिकतम इस्तेमाल किया।
—पहली बार गयौ ओ का स्पेन?
—हां चचा, पहली बार गया था। वायादोलिद में चौदह से से सत्रह मार्च तक ‘यूरोपीय हिन्दी संगोष्ठी’ थी। अधिकांश प्रतिभागी पहले आए होंगे और बाद में गए होंगे।
बहरहाल, वीज़ा विलम्ब सेमिला। चौदह को हमारी फ्लाइट मैड्रिड पहुंची, तीन बजकर चालीस मिनट पर, स्पेन के समय के अनुसार। सामान आने में देर नहीं लगी। एम्बेसी से सौमित्र सिंघा जी मिशन की एक बड़ी सी गाड़ी लेकर लेने आ गए। हम थे पांच लोग, श्री विभूति नारायण राय, उनकी पत्नी, डॉ. वी. आर. जगन्नाथन और जेएनयू की प्रोफेसर डॉ. वैष्णा नारंग। वायादोलिद के लिए ट्रेन जानी थी छः बजकर दस मिनट पर। मैंने सौमित्र से पूछा कि स्टेशन पहुंचने में कितना वक़्त लगेगा, वे बोले दस मिनट। मैंने पूछा कि फिर हम डेढ़-दो घंटे स्टेशन पर क्या करेंगे? उन्होंने बताया कि वहां पर बड़ा सा वेटिंग एरिया है, फूड-कोर्ट है। मैंने जिज्ञासा रखी कि क्या हम इस डेढ़ घंटे का इस्तेमाल मैड्रिड दर्शन के लिए कर सकते हैं। उन्होंने अपने स्पेनिश ड्राइवर अल्ज़ार से पूछा। वह तो यह जानकर उत्साहित हो गया कि उसके देश की संस्कृति में दिलचस्पी दिखाई जा रही है। उसने हमें देढ़ घंटे के अन्दर जो मैड्रिड दिखाया चचा, तबीयत झक्क हो गई, मज़ा आ गया।
—का दिखायौ वानै?
—सबसे पहले तो उसने बुलफाइटिंग का स्थान दिखाया ‘प्लाज़ा दे तोरोस’। लाल रंग की चार मंज़िला भव्य गोलाकार इमारत। इस विराट बुल फाइटिंग रिंक के चारों तरफ कांस्य मूर्तियां लगी हुईं थीं। एक मूर्ति थी जिसमें एक बुल ने एक जाबांज़ जवान ‘आत्रेवीदोस’ को हवा में उछाला हुआ था। जवान के चेहरे पर भय की कोई शिकन नहीं थी। कितने ही लोग हताहत हो जाते हैं, फिर भी टकराने का हौसला नहीं छोड़ते। हमारे यहां तो मनुष्य से मनुष्य के टकराने के खेल ज़्यादा होते हैं। वे प्रकृति से टकराते हैं और उसको खेल बनाते हैं। हमारे यहां बुलबुल किस्म की फाइटिंग होती रहती है, लेकिन मनुष्यों से बुल फाइटिंग नहीं।
—नायं, नायं लल्ला! दक्षिण भारत में होयं। मैंनै टीवी पै देखी ऐं।
—होती होंगी, लेकिन मैड्रिड ऐसा शहर है जिसे अच्छी तरह जानने के लिए अनेक दिन बिताए जा सकते थे। वह शहर जो पिकासो का है, कोलम्बस का है। वह शहर जो यूरोप और एशिया को सांस्कृतिक तौर पर मिलाने वाला है, जहां की सभ्यता और संस्कृति का काफी प्रभाव भारत पर पड़ा और भारत भी वहां गया है अपना सामान और संस्कृति लेकर। वह शहर जो यूरोपीय सभ्यता के श्रेष्ठ तत्वों को हमारे सामने लाता है। वह जहां यूरोप की सबसे तेज़ रेलें चलती हैं। वह जहां सौकर के ज़बर्दस्त प्रेमी हैं।
—और का देखौ?
—फिर देखा सिटी सेंटर। जहां के गोल चक्कर पर पांच दरवाज़ों वाला एक महाद्वार था, सिलेटी पत्थर का बना हुआ ‘रेगे कारोलो’। दरसल, वहां पतझड़ का मौसम चल रहा था चचा, लम्बे-लम्बेऔर ऊंचे-ऊंचे सारे पेड़ निर्वसन थे, इस कारण कार से इमारतों का अधिकांश दिखाई दे रहा था। पतझड़ का ये फायदा तो था। सिटी काउंसिल की भव्य सफेद इमारत देखी। अनेक पुराने चर्च देखे।प्रादो म्यूज़ियम देखा बाहर से। बाहर से ही देखा ‘संटियागो बेर्नाब्यू’, फुटबॉल-सौकर का एक सौ दस साल पहले बना हुआ अस्सी हज़ार से ज़्यादा दर्शकों की क्षमता वाला वह महास्टेडियम जो संसार के हर फुटबॉल प्रेमी का तीर्थ है। मैं जब मुम्बई लौटा चचा और अपने भतीजे रघु को मैंने उसके बारे में बताया तो वह तो रोमांचित हो गया। चौदह साल का है, फुटबॉल खेलता है। उसी नेविस्तार से उस स्टेडियम के बारे में तरह-तरह की बातें बताईं। बच्चे बड़े ज्ञानी हैं आजकल के।
—जामैं का सक ऐ रे।
—पर चचा, आगे की बात फिर कभी पर मैड्रिड के ड्राइवर को दिल से शुक्रिया।