लाश में अटकी आत्मा
(एक जीवन में कितनी ही बार मारा जाता है आदमी, क्षमाभाव उसे जीवित रखता है)
आत्मा अटकी हुई थी लाश में,
लोग जुटे थे हत्यारे की तलाश में।
सबको पता था कि हत्यारा कौन था,
लाश हैरान थी कि हर कोई मौन था।
परिवार के लोगों के लिए
आत्महत्या का मामला था,
ऐसा कहने में ही कुछ का भला था।
अच्छा हुआ मर गया,
एक पोस्ट खाली कर गया।
अचानक पड़ोसियों में
सहानुभूति की एक लहर दौड़ी
उन्होंने उठाई हथौड़ी।
सारी कील निकालकर खोला ताबूत।
पोस्टमार्टम में एक भी नहीं था
आत्महत्या का सबूत।
उन्होंने मृतक के पक्ष में
चलाया हस्ताक्षर अभियान,
सारे पड़ोसी करुणानिधान।
काम हो रहा था नफ़ीस,
कम होने लगी लाश की टीस।
सबके हाथों में पर्चे थे,
पर्चों में मृतक के गुणों के चर्चे थे।
अजी मृतक का कोई दोष नहीं था,
आरोपकर्ताओं में
बिलकुल होश नहीं था।
हस्ताक्षर बरसने लगे,
लाश के जीवाश्म सरसने लगे।
और जब अंत में मुख्य हत्यारे ने भी
उस पर्चे पर हस्ताक्षर कर दिया,
तो लाश आत्मा से बोली—
अब इस शरीर से जा मियां!
तेरी सज्जनता के सिपाहियों ने
पकड़ लिया है हत्यारे को।
परकाया प्रवेश के लिए
ढूंढ अब किसी और सहारे को।
भविष्य का रास्ता साफ़ कर,
हत्यारों को माफ़ कर।