क्या मेरा देश एकसंख्यक हो सकता है?
(कोई नहीं सोचता कोई नहीं देखता कि क्या होती है धर्मनिरपेक्षता)
अचानक पाया कि मैं बाहर की दुनिया में
कुछ इस क़दर बह गया हूं,
कि अपने, ख़ास अपने घर के अंदर
मैं अल्पसंख्यक तो क्या
सिर्फ़ एकसंख्यक रह गया हूं।
दोनों बच्चे मां की मानते हैं,
आदर के नाम पर
दादी-बाबा नानी-नाना को जानते हैं।
फिर सोचता हूं बहुसंख्यक
है ही कौन इस देश में?
सभी अल्पसंख्यक है अपने परिवेश में।
मुसलमान, सिख, ईसाई
जैन, बौद्ध, आदिवासी, कबीलाई
बंगाली, मराठी, गुजराती
कश्मीरी, अनुसूचित, आर्यसमाजी
तमिल, द्रविड़, सनातनी,
और फिर इनके भी फ़िरके-दर-फ़िरके
और उनकी तनातनी।
गूजर अहीर जाट बामन और बनिए
इनमें भी अलग गोत्र अलग वंश चुनिए।
श्वेताम्बरी दिगम्बरी निरंकारी अकाली
शिया और सुन्नी
अलग लोटा अलग थाली।
ऊंची जात का छोटी जात को खा रहा है,
आदमी आदमी का ख़ून बहा रहा है।
कोई नहीं सोचता कोई नहीं देखता,
इसको कहते हैं— धर्म निरपेक्षता।
संप्रदाय की खाइयां हैं धर्म की खंदक हैं,
लोग संकीर्णताओं के बंधक हैं।
सच पूछिए तो बहुसंख्यक कोई नहीं है
इस देश में हैं तो सिर्फ़ अल्पसंख्यक हैं।
सोचता हूं घर में एकसंख्यक होना
अच्छी बात नहीं है
आदमी अकेलेपन में खो सकता है,
क्या मेरा देश पूरी दुनिया की नज़रों में
एकसंख्यक हो सकता है?