कुछ नए की चाह में
(तरह तरह के विचार आएं तो ग़ज़ल कहो)
भागता मैं
कुछ नए की चाह में,
कितने रोड़े
आ रहे हैं राह में।
क़ातिलो यूं ही
नहीं मर जाऊंगा,
वक़्त काफ़ी है
अभी तो दाह में।
करके घायल
छोड़ कर जब जाओगे,
देखना मुस्कान
मेरी आह में।
एक भी मिसरा
अभी उतरा नहीं,
कितने पन्ने
कर चुका हूं स्याह मैं।
कुछ बहुत अच्छा हुआ
तो कुछ बुरा,
रंजो ग़म में
ख़ुश रहा इस माह मैं।
गुण दिए संतान को
क्या और दूं,
वक़्त थोड़ा ही बचा है
ब्याह में।
इस फ़क़ीरी का मज़ा
कुछ और है,
है ठसक ऐसी
कि जैसी शाह में।
पद या पैसे की
नहीं अब कामना,
चक्रधर संतुष्ट है
इक वाह में।