काहे का झंझट काहे की दैया
(स्वयं को सबसे निरपेक्ष मानने के पीछे होता है भीतर का डर, उससे मुक्ति मिले।)
रस्ता है मुश्किल
ख़स्ता है हाल
भइया!
झंझट ही झंझट
दइया रे दइया!!
लाठी ले कुछ लोग
झोंपड़ी जला रहे थे
जान के,
हमने देखा,
पर हम घर में
सोए लंबी तान के।
क्यों रोकें जी
क्यों टोकें जी,
अपना घर तो ठीक है
बहुत बड़ा है
मुलक हमारा,
अपने हिन्दुस्तान के
हम अकेले नहीं हैं खिवइया?
जो भी किए फ़ैसले भइया,
क्या तुम बिल्कुल ठीक थे?
आंखों देखे
जोर-जुलम में,
क्या ख़ुद नहीं
शरीक थे?
रख कर दिल पर हाथ
बताना
देख जुलम
मुंह मोड़ा क्यों,
हाथ पकड़ना था
ज़ालिम का,
जब इतने नज़दीक थे।
आप खुद भी बने थे कसइया।
भीतर के डर को
भगा देना भइया,
काहे का झंझट
काहे की दैया?