कागज़ों को फ़ाइलें पंसद हैं
(मतदाता और मतपाता सबकी हक़ीक़त सामने है)
फ़ाइल से निकलकर कागज़ कहां गया?
उत्तर मिला— दूसरी फ़ाइल में।
—फिर
—तीसरी फ़ाइल में।
—वहां से?
—अगली में।
—अगली से?
—और अगली में!
वाह! क्या ‘अगली’ सीन है,
कागज़ सिर्फ़
फ़ाइलों का शौकीन है।
पूरे एक साल बाद अब
तीन सौ पैंसठवीं फ़ाइल में बंद है,
फ़ाइलों से बाहर की दुनिया
वैसी ही मतिमंद है।
झुग्गी झोंपडियां उतनी ही गंदी,
राष्ट्रीय मूल्यों में उतनी ही मंदी।
पोले ढोलों पर थापें तो हैं ज़ोर की,
गूंज भी ख़ूब है वायदों के शोर की।
राम जाने क्या हैं इरादे,
पहाड़ी नाले के पानी की तरह
उछलते हैं वादे।
कागज़ों पर खुद गई हैं नहरें,
ड्राइंग रूम में उठ रही हैं लहरें।
राजनीति में सदाशय अनाथ है,
चिपको आन्दोलन गद्दियों के साथ है।
विधान में जितने अनुच्छेद हैं,
उनसे ज़्यादा उनमें छेद हैं।
कागज़ होते तो
उन्हीं से छेदों को भरते,
देश के लिए कुछ करते!
पर क्या करें
कागज़ों को भी तो फ़ाइलें पंसद हैं,
जहां शायद वे स्वेच्छा से बंद हैं।