इधर बस ज़ख़्म हैं गहरे!
(दर्द जब भीतर-भीतर पलता है तो अचानक फूटता भी है)
तुम्हारा कुंदमति कुंठन,
बनाता नित्य अवगुंठन।
तुम्हारी न्याय मीमांसा,
सदा देती रहीं झांसा।
गढ़ीं अनुकूल परिभाषा
तुम्हारे सत्य की भाषा
तुम्हारे धर्म की भाषा
तुम्हारे न्याय की भाषा
अब आकर जान पाई हूं,
भरोसों से अघाई हूं!
अभी भी सोचते हो तुम
कि दासी हूं मैं अनुगत हूं,
बराबर से भी कम हूं पर
महज़ ‘तेतीस प्रतिशत’ हूं!
यहां कुछ हैं जिन्हें
तेतीस भी कैसे गवारा हो,
कहा करते हैं प्रतिशत
बीस हो या सिर्फ़ बारा हो।
बताओ तो ज़रा
ये दर्दे-सिर
क्यों व्यर्थ ढोते हो,
ये प्रतिशत में
कृपाएं देने वाले
कौन होते हो?
उधर चेहरों पे हैं चेहरे,
इधर बस ज़ख़्म हैं गहरे!
मैं क्रोधी हूं, विरोधी हूं,
मैं चिंगारी प्रकट वन्या!
ये मैं हूं देश की कन्या!
यहां हूं देश की कन्या!
वहां हूं देश की कन्या!
इसी परिवेश की कन्या!