गया जब पांव खड्डे में
(कुछ ऊटपटांग सुनकर ऊटपटांग जवाब देने का मन करता है)
श्रीमानजी ने
पता नहीं वह शेर
ख़ुद बनाया था,
या कहीं का
सुना सुनाया था।
सुनाने से पहले उन्होंने
रोमांटिक सा पोज़ बनाया,
फिर बड़ी अदा से
हाथ हवा में घुमाते हुए
मस्ती में सुनाया—
चला था ढूंढने उसको,
निगाहें मेरी अम्बर पर
गया जब पांव खड्डे में,
तभी मैंने ‘खुदा’ जाना।
शेर सुनाकर वे हंसे,
पर हम उनकी शायरी के
हंस-फंदे में नहीं फंसे।
थोड़ी अकल लगाई,
उन्हें कुछ देर घूरा
फिर अपनी सुनाई—
लगन जब
एक की हो तो
तिगड्डे में
नहीं जाते,
हो मंज़िल एक तो
ग़ैरों के
अड्ड़े में नहीं जाते।
ख़ुदा है हर तरफ़,
मालूम है सबको
मगर प्यारे,
नज़र हो
गर ज़मीं पर,
पांव खड्डे में
नहीं जाते।