कहने को तो काफ़ी सारी दुनिया घूमी है, लेकिन एक स्थान है जो मेरी स्मृतियों में निरंतर घूमता रहता है– फागू। शिमला से बाईस-तेईस किलोमीटर ऊपर की ओर। शिमला राजभवन से पौन घंटे का रास्ता। अगर टनल में न अटके। कहते हैं कि शिमला में भी अब गर्मी ज़्यादा रहने लगी है। ग्लोबल वॉर्मिंग की मार पहाड़ों पर भी पड़ी है। पिछले दिनों शिमला गया तो फागू की ललक मुझे वहां ले गई और मैंने पाया कि फागू किसी ग्लोबल वॉर्मिंग का शिकार नहीं हुआ है। जैसा था लगभग वैसा ही है। कुछ मकान और बन गए, कुछ नए फ़्लैक्सी होर्डिंग और लग गए, लेकिन क़ुदरत के करिश्मे यथावत हैं। अचानक फॉग आ जाएगी, कभी विरल, कभी सघन। एक तिकोने पहाड़ पर तेज़ रफ़्तार हवा इतनी घूमती-घामती चलेगी कि लगेगा जैसे आपका कुर्ता ही उतारने पर उतारू हो। धूप और चांदनी भी भरपूर।
फागू से मुझे विशेष प्रेम है। उसकी वजह यह भी है कि दस साल तक हम दोनों अपने दोनों बच्चों के साथ निरंतर फागू आते रहे और तब तक आते रहे जब तक कि बच्चे जवान नहीं हो गए और उनकी दिशाएं, राहें और उड़ानें नहीं बदल गईं। महीने भर रुकते थे। पीडब्ल्यूडी की एक हट थी जो हठपूर्वक वरिष्ठ अभियंताओं ने अपने पास रख ली थी। नेताओं का ध्यान उस हट पर चला जाता तो उसे गेस्टहाउस बना दिया जाता, जिसके कमरे प्रियजनों को दिए जाते। तीन-चार दिन से अधिक कोई रह नहीं पाता। पीडब्ल्यूडी के अभियंताओं का यह निजी विश्रामस्थल था। मेरे प्रेमी थे वे लोग। हट के प्रांगण में महीने में दो-तीन दिन रसरंजन और भोजनानन्द के साथ कविताएं होती थीं। इसकी एवज में ये निर्मल हृदय के कला-प्रेमी इंजीनियर मुझे वहां टिके रहने की सुविधा देते थे। मेरे साथ उनकी कलात्मक अभिव्यक्तियों को अवसर मिलता था। मैं भी हर बार अपनी एक-दो किताब बना लेता था और बच्चों के साथ किलोल करता था।
क्या कहने हैं फागू के! हट नामक गेस्ट हाउस के कमरे से निकलकर अगर एक घंटे भी खड़े रहो तो कितने सारे मौसम बदल जाएंगे। थोड़ी देर ग्लोबल वार्मिंग का सा असर दिखेगा, लेकिन ज़रा सी देर में लोकल कोल्ड लगेगा, लोकल रेनी हो जाएगा, लोकल ओले-ओले हो जाएगा, ओले ही ओले। मैंने एक ग़ज़ल भी कह डाली वहां पर— ‘यहां फागू में कुदरत ने ख़ज़ाने किस क़दर ख़ोले, अभी गर्मी, अभी सर्दी, अभी बारिश, अभी ओले।’ फिर दिखाई देते थे चारों तरफ पहाड़, ठियोग जाने वाली चौड़ी सड़क पर एक मंदिर, तिराहे से चियोग को जाने वाली लहराती, बल खाती, देवदार वृक्षों से घिरी एक कमनीय सड़क। उस पर गुजरते वाहन, बिजली के तार, सीढ़ीदार खेत, गुलाबी दीवारों वाला पोस्ट ऑफिस। ये सब अगर मिलकर पुकारें तो उतरना पड़ेगा आपको। जाना पड़ेगा चियोग।
और अचानक पहाड़ों से संवाद करने लगता हूं मैं। बादलों का, धुंध का, फॉग का क्या भरोसा? आए और गए! ध्यान तो तुम्हें रखना होगा पहाड़ो! ‘पहाड़ो तुम ज़रा इन बादलों पर भी नज़र रखना, न कोई बेहया पागल फिज़ाओं में ज़हर घोले।’
देखिए, ये तो आनन्द लेने वालों की मर्ज़ी पर है कि वे अपनी छुट्टियां कहां और किस प्रकार बिताते हैं। मन चंगा और निर्मल विमला, तो कठौती में गंगा मसूरी शिमला। सचमुच शिमला जाइए, वहां ख़ूब सारे होटल या गेस्ट हाउस मिलेंगे। पहाड़ों को कांट-छांट तराश कर महानगरीय बोध देने के लिए सीमेंट से पोतने के बाद छोटे-छोटे स्थानों में ज़्यादा सुविधाएं परोस दी गई हैं, लेकिन आनन्द यहां नहीं हैं। थोड़ा ऊपर चले जाएं या नीचे उतर जाएं। पहाड़ी गांव और कस्बे देखें। वहां प्रकृति भी उनके साथ किलोल करती हुई मिलेगी। हालांकि, इंसान के हाथों ने यहां भी पहाड़ों से टक्कर लेकर अपनी झोंपड़ी, अपनी खपरैल-टीन की छतें बनाई है, लेकिन यह एक अनगढ़ सौन्दर्य है। पहाड़ से टूटे पत्थर के टुकड़ों को उनकी अनगढ़ता में जमा-जमा कर एकसार करने की कला आंखों से दिमाग़ तक जाती है और दिमाग़ से हाथों तक आती है। पतली सर्पिल पगडंडियां और उन पर स्कूल जाते हुए बच्चे, पहाड़ों की दूर तक दिखती श्रृंखलाएं, उसमें चरते मवेशी, दूर-दूर छितरी हुई टीन की छतें, सीढ़ीदार खेत, रंग बदलता मौसम। टहलते-टहलते बारिश आ जाए और आप छाता लेकर नहीं निकले तो समझिए एक ठिठुरन-कंपकपी बहुत देर तक आपका साथ निभाएगी। बढ़िया जूते हों, एक शॉल, एक छाता, साथ में बागेश्री जी तो बाहर निकलने में बड़ा मज़ा आता है। पतली सड़क से ऊपर की ओर देखो तो पहाड़ों पर चलते हुए नवनिर्माण दिखाई देंगे। नीचे की ओर देखो तो टीन की छत। मैंने एक छोटी सी कविता चियोग की पतली सड़क की एक पुलिया के सीमेंट जैसे बने बैंच पर बैठकर लिखी थी— ‘टीन की छत’। कविता में ग्लोबल गांव में मनुष्यता के विस्तार का एक दृश्य था—
‘सामने टीन की एक छत, उसके आगे एक नीचा पर्वत। उसके आगे थोड़ा बड़ा पहाड़, उसके आगे थोड़ा और बड़ा पहाड़। चलो देखते हैं क्या है उस बड़े पहाड़ के आगे? एक पैर रखा टीन की छत पर दूसरा नीचे पर्वत पर, अब एक छलांग लगाते हैं बड़े पहाड़ पर, एक छलांग और, और बड़े पहाड़ पर। अब देखते क्या हो बेहूदो? नीचे कूदो! रुको! रुको! रुको मेरे यार! ये तो पता चल ही गया कि क्या है पर्वतों के उस पार। धत! वही टीन की एक छत।’
पहाड़ के इस तरफ, पहाड़ के उस तरफ मनुष्य बसते हैं। और दोस्तो! छुट्टियां बिताने के हज़ारों रस्ते हैं। जहां भी मन आए, वहां जाएं। एक टीन की छत के नीचे किसी मनुष्य की मुस्कान की नज़रों से अपनी मुस्कान की नज़रें मिलाते हुए। अच्छा जूता, अच्छा शॉल और अच्छा छाता और जीवनसाथी को साथ लेकर निकलेंगे तो छुट्टियां अच्छी बीतेंगी। जवान बच्चे पुन: बच्चा बनने को राजी हो जाएं तो कहने ही क्या!