एक हज़ार आठ सौ पचास का चक्कू
(जब ख़ुद पर बीतती है तभी दिखाई देता है नर्क)
जब मैंने उन्हें बताया कि
हर तरफ लूट है, खसोट है
मारामारी है,
रिश्वतखोरी है
कालाबाज़ारी है,
बेईमानी धुआंधार है
हर तरफ भ्रष्टाचार है,
तो श्रीमान जी नहीं माने।
बोले—
थोड़ा-बहुत है
लेकिन तुम कवि लोग तो
हर समय ही मारते हो ताने।
व्यवस्था की
ख़ूबियां नहीं दिखाते
अच्छाइयों के गुण नहीं गाते।
संयोग से अगले दिन
लाइसेंस में एक नाम
ठीक कराने के लिए
वे म्युनिसिपल कमेटी के
दफ़्तर गए।
वहां चपरासी ने सौ
क्लर्क ने ढ़ाई सौ
छोटे अफ़सर ने पांच सौ और
अफ़सर के अफ़सर ने
हज़ार रुपए खाए,
तो दौड़े-दौड़े मेरे पास आए।
बोले— यार, मार दिया,
पूरे एक हज़ार आठ सौ पचास का
चक्कू उतार दिया।
मैंने कहा—
हुज़ूर, दूसरों का सच
आसानी से नहीं झिलता,
और अपने मरे बिना
नर्क नहीं मिलता।