—चौं रे चम्पू! क्हां ते आय रह्यौ ऐ?
—आकाशवाणी पर ‘ब्रज माधुरी’ का कार्यक्रम था, ‘मोहे ब्रज बिसरत नाहीं’। डॉ. मुकेश गर्ग ने ब्रज भाषा में मेरा साक्षात्कार लिया। अपनी भाषा में बतियाने का आनन्द अलग ही होता है चचा। मुकेश जी के साथ बचपन की ख़ूब सारी यादें ताज़ा हुईं। वे मेरे बाल-सखा रहे हैं। उनसे बड़ी ईर्ष्या होती थी।
—चौं, ईर्सा चौं होती?
—क्योंकि वे कला-क्षेत्र में थे और मैं विज्ञान में। वे संगीत सीखते थे और मैं फिज़िक्स, कैमिस्ट्री और गणित में उलझा हुआ था। अपनी कक्षाओं से खिसक कर मैं उनकी कक्षा में बैठ जाता था। चौबे मास्साब प्रेम से बैठने देते थे। मुकेश कठिन संगीत-साधना करते थे। मुझे लगता था कि काश, मैं भी गायन-वादन कर रहा होता।
—चर्चा का भईं?
—ब्रज की बगीची-संस्कृति पर। बगीचियां कविता की अनौपचारिक कार्यशालाओं का अड्डा हुआ करती थीं, आपकी बगीची की तरह। हाथरस के बारे में कहा जाता था कि बगीची के आसपास की एक ईंट उठाओ तो उसमें से एक कवि निकलेगा। ’हाथरसी’ तख़ल्लुस के कितने ही कवि मेरे ही संज्ञान में थे, लेकिन काका हाथरसी पहले थे। उन्होंने प्रभु लाल गर्ग से अपना नाम ‘काका हाथरसी’ कर लिया। बगीचियों पर काव्यशास्त्र का ज्ञान और कविताएं विकसित होती थीं।
—कछु बगीचीन के नाम बता।
—चकलेश्वर बगीची, राम बगीची, गंगाभीम की बगीची, हींग वालों की बगीची, हन्नासिंग की बगीची, अटल टाल बगीची, गुलाब बगीची, कितनी गिनाऊं? वहां पर घुटती थी ठंडाई। जो शौकीन थे, भांग घोटते थे। साथ में बातें घुटती थीं। गुरु श्याम बाबा को सब मानते थे, जो छंद-शास्त्र सिखाते थे, समस्यापूर्ति कराते थे। शब्द देते थे, कि ये कविता में आने चाहिए। एक बार उन्होंने शब्द दिए, साम दाम दंड भेद। चलो बनाओ कुछ भी!
—तैनैं बनाई?
—मैंने छंद तो नहीं, ब्रजवासी का एक संवाद लिखा, ‘जो है का ऐ सो ‘साम’ को टैम है गयौ ऐ। ‘दाम’-दमड़ी कौ इंतजाम ऊ कन्नौ ऐ। ‘दंड’ पेल रह्यौ होयगौ पट्ठा बगीची पै। जे नायं कै टैम ते ई ‘भेद’ देय घोट-घाट कै।’