दोहा की अतीतजीवी संस्कृति —चौं रे चम्पू! दोहा में कौन-कौन कवि हते तेरे संग? —अटल, अरुण, ममता और सुदीप। वहां पहुंचते ही सुदीप के पास उसकी पत्नी का फोन आया, ‘कहां हो?’ ‘कतार में।’ ‘तुम तो दोहा गए थे। कतार में कैसे लग गए? लौट आओ, यहां एटीएमएम में कोई भीड़ नहीं … Continued
धरोहरों का उपयोग —चौं रे चम्पू! इलाहाबाद में कौन-कौन मिले? —कहां तक गिनाऊं? स्टेशन पर उतरते ही मिले डॉ. युगांतर और डॉ. नीरज त्रिपाठी। युगांतर आयोजक होने के नाते आए थे और नीरज मोहब्बत में। दोपहर का भोजन कराया प्रसिद्ध न्यूरोसर्जन डॉ. प्रकाश खेतान ने। उनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ … Continued
उड़ जा रे कागा —चौं रे चम्पू! और सुना का सुनायगौ? —सुनाऊं क्या? मैं स्वयं किशोरी अमोनकर नाम के उत्तुंग शिखर से आती हुई गूंज में डूबा हूं। ‘सहेला रे…’ या ‘उड़ जा रे कागा…’। गायन-गूंज दिल में आकर बैठ गई है चचा! —सुनी ऐ कै बड़ी नकचढ़ी हतीं। … Continued
एकसंख्यक का बयान —चौं रे चंपू! तेरे मन में कोई सवाल हतै का? —सवाल तो खूब सारे रहते हैं चचा, मेरा सवाल ये है कि धर्म एक निजी मामला है। निजता से निजता जुडती हैं। तभी अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक बन जाते हैं। मेरा सवाल ये है कि ये एकसंख्यक नहीं … Continued
हज़ार साल की गारंटी —चौं रे चंपू! तोय संगीत की सबते कमाल की रचना कौन सी लगै? —बीसवीं सदी जा रही थी और इक्कीसवीं आ रही थी, तब संगीतमयी एक पंक्ति बारम्बार दोहराई जा रही थी, ’मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा।’ जितनी बार सुनो, अच्छा लगता था। … Continued
खड़ी हो सकें आसरे बिना —चौं रे चंपू! मजदूर औरतन्नै पतौ ऐ, आज महिला दिबस ऐ? —मजदूर नारियां, मजदूर पुरुषों से ज़्यादा काम करती हैं चचा! उन्हें कुछ नहीं मालूम कौन सा दिवस कब आता, कब जाता है। पति कभी कमाता, कभी सताता है। कितने तरह के काम करती हैं मज़दूर औरत, मैंने … Continued
चीं-चपड़ और चीं-पौं —चौं रे चंपू! गरदभ-चरचा बंद भई कै नायं? —गर्दभ-चर्चा घर लेटी, बंद हो गईं मतपेटी। चचा, इंसान होकर बोलना न आए तो जानवर की तरह चुप रहना ज़्यादा अच्छा है। आत्मचिंतक, शांतिप्रिय, मितभाषी, अहिंसा-प्रेमी और धैर्यधन गधा सदा चीं-चपड़ नहीं करता, यदाकदा चीं-पौं करता है। ‘चपड़’ और ‘पौं’ … Continued
चरखे, घंटियां और पोटलियां —चौं रे चम्पू! बता पिछले दिनन की कौन सी चीज याद ऐं? —चीज़ें बहुत हैं, पर चरखे, घंटियां और पोटलियां पक्की याद हैं। इंडियन ऑयल के कविसम्मलेन में दीप-प्रज्वलन के समय घंटे-घंटियों, दमामों और नगाड़ों की ध्वनियां गूंजीं। क्या समां बंधा! फिर हर कवि को एक-एक चरखा … Continued
व्यंग्यश्री —चौं रे चम्पू! आनंद में तौ है? —परमानंद में। पूर्ण आनंद में। सर्वानंद में। सतचित्त आनंद में। आप सोचेंगे कि इतने सारे आनंद कैसे कहां से मिल गए। तो मैं आपके बिना पूछे ही बता रहा हूं कि कल मेरे प्रिय व्यंग्यकार आलोक पुराणिक को एक लाख … Continued
कोरा ज्ञान कोरा संवेदन —चौं रे चम्पू! आज बगीची पै बालकन्नै कहां-कहां ते तेरे फोटू निकारि कै दीवार सजाय दईं ऐं! बता अपने जनमदिन पै का भेंट चइऐ तोय? —आपका और बगीची का प्रेम काफ़ी है, चचा! ठीक छियालीस साल पहले, आठ फरवरी उन्नीस सौ इकत्तर को मैं बीस वर्ष का हुआ … Continued