और जब तू सामने होती है
(आंखें अंग-प्रत्यंग में और जीवन की हर जंग में हैं, लेकिन…..)
चलता हूं तो खुली रखता हूं
पैरों की आंखें,
फिसलता हूं तो खुली रखता हूं
हथेलियों की आंखें।
टाइप करते वक्त खुली रखता हूं
अपनी उंगलियों के शिकंजों की आंखें,
ड्राइव करते वक्त खुली रखता हूं
पैर के पंजों की आंखें।
पलटता हूं तो खुली रखता हूं
पीठ की आंखें,
गिरता हूं तो खुली रखता हूं
पूरी देह की आंखें।
मजदूरी करता हूं तो खुली रखता हूं
पेट की आंखें,
कुछ तय करता हूं तो खुली रखता हूं
रेट की आंखें।
बुराइयां होती हैं तो खुली रखता हूं
कान की आंखें,
पड़ौसियों के लिए खुली रखता हूं
मकान की आंखें।
रसोई में कुछ होता है तो खोल लेता हूं
नाक की आंखें,
अपमान की संभावना में खोल लेता हूं
अपनी साख की आंखें।
ज्ञान की कामना में खोलता हूं
अंदर की पुस्तक की आंखें,
क्रोधित होता हूं तो खोल लेता हूं
मस्तक की आंखें।
लेकिन! बारिश में बंद करनी पड़ती हैं
खोपड़ी की आंखें,
और जब तू सामने होती है
तो खुली होने के बावजूद
बंद हो जाती हैं सारी
हां सारी… सचमुच सारी आंखें।