अनुभवोंं की बाईप्रोडक्ट कविता
(किसी के बिना जब रहा नहीं जाता है)
खोए खोए से श्रीमानजी पूछने लगे–
क्या होता है… क्या तो होता है
क्या तो हो जाता है
क्या-क्या तो हो जाता है
कैसा-कैसा सा तो हो जाता है
जब किसी को किसी से
कुछ-कुछ वैसा-वैसा सा तो हो जाता है?
मैंने पूछा– वैसा वैसा ! कैसा कैसा?
वे बोले– अरे आप समझे नहीं…
समझिए कि ऐसा जो सहा नहीं जाता है,
किसी के बिना रहा नहीं जाता है।
बहते हों तो ठहरा नहीं जाता है
ठहरे हों तो बहा नहीं जाता है।
जो भी होता या नहीं होता
उसे शब्दों में कहा नहीं जाता है।
जो नहीं होता वो होता है
जो होता है वो नहीं होता है।
क्यों कुछ में से कुछ खो जाता है,
क्यों कुछ ऐसा है
जो होते-होते हो जाता है?
बताइए बताइए आप कवी हैं….
मैंने कहा– आप अनुभवी हैं!
कवि क्या करेगा…. कद्दू!
लगता है आप इश्क में हो चुके हैं बुद्धू!
वे बोले– बुद्धू नहीं
शायद बुद्ध हो चुके हैं,
अनौखे अनुभवों की हुलसित हवाओं की
अनंत तक जाने वाली
एक इंटर्नल डक्ट…
मैंने टोका– कविता होती है
उन्हीं अनुभवों की एक्सटर्नल बाईप्रोडक्ट!