अंत में सुन लो फिर बोलना!
(मैं रचना हूं चराचर की मैं नारी हूं बराबर की)
उतारो आवरण
छोड़ो ग़ुरूरों की ये गुरुताई,
प्रभाएं देख लो मेरी,
तजो ये व्यर्थ प्रभुताई।
मुझे समझो,
मुझे मानो,
मुझे जी जान से जानो,
प्रखर हूं मैं प्रवीणा हूं,
मेरी ताक़त को पहचानो।
तुम्हारा साथ दूंगी मैं,
तुम्हारी सब क्रियाओं में,
अगर हो आज मेरा हाथ,
निर्णय-प्रक्रियाओं में।
कहा है आज मैंने जो,
बराबर ही कहूंगी मैं—
बराबर थी, बराबर हूं,
बराबर ही रहूंगी मैं।
प्रकृति ने इस युगल छवि को
मनोहारी बनाया है,
बराबर शक्ति देकर
शीश भी अपना नवाया है।
मैं रचना हूं चराचर की,
मैं नारी हूं बराबर की।
नहीं चाहा कभी मुंह खोलना मैंने,
मगर सीखा अभी है बोलना मैंने!
अगर मैं रूठ जाऊंगी,
न पाओगे कोई अन्या!
ये मैं हूं देश की कन्या!
मैं चिंगारी विकट वन्या!
बहन, पत्नी, जननि, जन्या,
धवल, धानी-धरा धन्या!
यहां हूं देश की कन्या!
वहां हूं देश की कन्या!
इसी परिवेश की कन्या!