अचानक दस का सिक्का दिखा
(जैसे बिछड़ा हुआ कोई साथी मिल गया)
कल अचानक दस का सिक्का दिखा था,
ऊपर अशोक की लाट
नीचे टैन लिखा था।
कहां थे इतने साल, मिले नहीं प्यारे!
मेरे ऊपर बड़े अहसान हैं तुम्हारे।
तुम दिल्ली की बसों में सफ़र करवाते थे।
कड़क प्यास में दो गिलास पानी
और भिखारी से दुआएं दिलवाते थे।
सुकून पाता था जब जेब टटोलता था,
मूंगफली वाले से रौब से बोलता था।
मैं तुम्हारे सहारे अधर लगे लिफ़ाफ़े में
प्रेमपत्र भेजता था,
अगले पत्र के लिए भी तुम्हें सहेजता था।
अचानक मिले तो दिल-कमल खिल गया,
जैसे बिछड़ा हुआ कोई साथी मिल गया।
फिर कहां खो गए?
अच्छा ही हुआ कि अंतर्धान हो गए!
सुन्दर मनमोहक ढलाई,
किनारों पर बारह गुम्बदों की गोलाई!
इतने गोल भी नहीं कि लुढ़कते जाओ,
न ऐसे चित्त-पट्ट वाले कि
हवा में उछलते जाओ।
हथेलियों पर ही दमकते थे,
एक के नोट की तरह
न भिनकते थे न थकते थे।
न दूसरे सिक्कों की तरह ठनकते थे,
एक रुपए के दस आ सकते थे।
तुम्हारा स्वाभिमान कभी हारा नहीं,
तुमने अवमूल्यन स्वीकारा नहीं।
भले ही गिलट की दुकानों में गल गए,
किसी और ही शक्ल में ढल गए।
सोचता हूं कि अब अगर सरकार
अरबों खरब के मालों-घोटालों को
तुम्हारे रूप में तब्दील करती,
तो तुम इतने सारे होते कि
वज़न से दब जाती धरती।