आग पलकें नहीं झपकाती
(कोलकाता के अस्पताल के आगे आग का बयान)
श्रीमानजी आग से बोले—
माफ़ करना बहन जी
आप अच्छी-ख़ासी बद्तमीज़ हैं!
आपने ये नहीं देखा कि जिन्हें जला रही हैं
वे अस्पताल के मरीज़ हैं!!
आग बोली— श्रीमानजी!
मैं ये नहीं कहूंगी कि आप बदज़ुबान हैं,
और आपके मन में बहन के लिए
बेहद कम सम्मान है,
पर याद रखिए
मरीज़ों के लिए ज़िम्मेदार मैं नहीं हूं
मुझे न्यौता देने वाला सामान है।
मैं शून्य को नहीं जलाती हूं,
बिना भड़काए नहीं आती हूं।
मुझे फैलाने वाली हवा है,
मैं अगर बीमारी हूं तो पानी मेरी दवा है।
हवा और चिंगारी मुझे संक्रामक बनाते हैं,
लापरवाह साधन मुझे आक्रामक बनाते हैं।
फिर कौन है जिसका मैं दाह नहीं करती,
मैं अपने पराए की परवाह नहीं करती।
नहीं देखती कि कौन हैं आप,
नहीं देखती कि पुण्य है या पाप।
पहले चुपचाप सुलगती हूं,
फिर एक से दूसरे में लगती हूं।
पलकें नहीं झपकाती हूं,
मैं लपटों को लपटें लपकाती हूं।
थोड़ी देर में आपे से बाहर हो जाती हूं,
काली-पीली चित्तीदार नाहर हो जाती हूं।
सतयुग में तो कुछ अपवाद भी थे,
ये कलयुग है श्रीमानजी
मरीज़ों में सीता और प्रह्लाद भी थे।
कौन रोकेगा अस्पताल में
ऑक्सीज़न या गंधक को आने से,
हां, फ़र्क़ पड़ेगा
प्रबंधकों को बंधक बनाने से।
इमारतो, कार्यालयो, स्कूलो, अस्पतालो!
मुझसे बचना है तो ख़ुद को संभालो!!