—चौं रे चम्पू! आज बिना कलफ बिना प्रेस कौ कुर्ता पहरौ ऐ! का चक्कर ऐ? कपड़न समैत ई तेरी घर में धुलाई है गई का?
—चचा घर में मेरी धुलाई तो प्रेस के कपड़ों में भी हो जाती है। हुआ ये कि कल रात एक कविसम्मेलन में गया था। वहां इतना पानी बरसा कि सारा कलफ़ निकल गया। फिर कुर्ता बदला ही नहीं।
—तौ का खुले में औ कविसम्मेलन?
—हां चचा! मौसम बरसात का नहीं है, पर अचानक बारिश आ गई। पन्द्रह कवि थे। हल्की-हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। लग रहा था जैसे इस गर्मी के मौसम में आसमान गुलाब जल छिड़क रहा हो। श्रोता भी कई हज़ार थे। हल्की फुहारों में पहले दो कवियों ने सुदीर्घ काव्य-पाठ किया। मैंने देखा कि बिजली की कड़क मामूली नहीं थी। आभास होने लगा यह बिजली कविसम्मेलन पर भी गिर सकती है। संचालक से मैंने कहा कि सब कवियों से अनुरोध करो थोड़ा-थोड़ा ही सुनाएं, ताकि पहले चक्र में सबको अपनी एक कविता सुनाने का अवसर मिल जाए। बारिश न आई तो एक दूसरा दौर किया जा सकता है।
—पहलै तौ चार-चार दौर होते!
—अचानक बरसात तेज हुई। श्रोताओं में भगदड़ मची। अब संचालक को लगा कि अगर सारे कवियों ने काव्य-पाठ न किया तो आयोजक कवियों को लिफाफा न देंगे। सब कवियों से कहा गया कि अपनी चार-चार पंक्तियां सुना दें। भागती-दौड़ती भीड़ के बीच में दो कवियों ने एक-एक मुक्तक सुनाकर दो मिनट में काव्य-पाठ समाप्त कर दिया। इस दो मिनट में श्रोता रह गए चौथाई से भी कम। लेकिन बारिश थमी। जैसे थोड़ी देर के लिए धमकी देने आई हो। अगले कवि ने देखा कि श्रोता लौट रहे हैं। उन्हें भ्रम हुआ कि यह उनकी कविता की ताकत है जो श्रोताओं को वापस ला रही है। आधा घंटा ले गए। संचालक के इशारे काम न आए। मेरे ख्याल से बारिश भी नाराज हो गई — एक बार धमकाया था हे कवियो! मेरी धमकी का तुम पर कोई असर न हुआ। तो जी, घन-गरज के साथ छींटे पड़े। कविताएं हो रही थीं। श्रोता पानी के साथ-साथ कविताओं में भी भीग रहे थे। माइक पर खड़ी कवयित्री ने कहा कि यह मेरा अंतिम मुक्तक है। इस पर ज़्यादा तालियां बज गईं। वे इन तालियों का अर्थ न समझ पाईं। लीजिए दो मुक्तक और सुना रही हूं। चलते-चलते बोलीं— इधर एक ताजा गीत लिखा है उसे सुनाए बिना तो मैं बैठने वाली नहीं हूं।
—कबियन में बड़ी पढ़ास होय करै।
—संचालक माइक से इशारे करे। ऐसे में कविगण संचालक की ओर देखते ही नहीं हैं। बहरहाल रिम-झिम में श्रोता बैठे रहे। फिर जी एक आए भूतपूर्व कवि और वर्तमान लाफ्टर चैलेंज के ख्यातिनाम व्यक्ति। उन्होंने उस रिम-झिम में पौना घंटा खींच दिया। लतीफों की झड़ी लगा दी। सड़े-गले चुटकुले झेलते रहे श्रोता। हंसते भी रहे। लतीफेबाज़ का अभिनय भी काम में आ रहा था। अचानक…
—का भयौ अचानक?
—एक बहुत अच्छी बात हुई। श्रोताओं में से दो-तीन लोग आगे आए। उन्होंने चीखकर उस लाफ्टर चैंलेंज वाले कवि से कहा— बैठ जाइए। हम लतीफे सुनने नहीं आए। कविताएं सुननी हैं। अभी जो कवि बचे हैं, उनकी कविताओं के लिए लोग रुके हुए हैं। बन्द करिए लतीफेबाज़ी। उस हास्य कलाकार ने हास्य-मिश्रित क्रोध में उन लोगों की ओर इशारा करते हुए जनता से कहा हटाओ इन्हें। कौन आ गए प्रोग्राम बिगाड़ने? उसने समझा कि सारी भीड़ उसका साथ देगी। चचा मुझे प्रसन्नता इस बात की हुई कि जनता ने उसका साथ नहीं दिया। लाफ्टर वाले को आफ्टर ऑल बैठना पड़ा। उसके बाद अपनी भी बारी आई।
—तैंने का सुनाई?
—रिम-झिम जारी थी। कविता सुनाईं सो सुनाईं पर मैंने इतना कहा कि कविसम्मेलनों की जो परंपरा हमारे कस्बों और नगरों में है— लोग सचमुच कविता सुनने आते हैं। सम्पूर्ण भोजन की थाली चाहते हैं। सिर्फ चटनी, अचार, मुरब्बे के लिए नहीं आते। अकबर के दरबार में बीरबल भी थे और रहीम भी थे। दोनों मौलिक थे। अब मंच पर मौलिकता तो मुश्किल से दिखती है। ऐसा न हो कि बीरबल व्यर्थ ही बलबीर होने की कोशिश करें और रहीम इनके रहमोकरम पर रह जाएं। कविसम्मेलनों में कविता को बचाइए।
—तेरी बात सुनी लोगन नै।
—सुनी! चचा वहां तो तालियों की बरसात हो गई।