—चौं रे चम्पू! तोय गुस्सा आवै कै नायं?
—चचा! गुस्सा तो प्राणि-मात्र की पहचान है। हंसी, कहते हैं सिर्फ़ मनुष्य के हिस्से में आई है, पर क्रोध भी मनुष्यता को रेखांकित करता है। हंसी अगर अधरों का सौन्दर्य है तो क्रोध रीढ़ की हड्डी का सात्विक अस्तित्व है। जिस आदमी को क्रोध नहीं आता वह तो मेरुदंड-विहीन है। लुंज-पुंज है। कभी सीधा खड़ा नहीं हो सकता। लेकिन मैं मानता हूं कि क्रोध सबसे मूल्यवान चीज़ है और मूल्यवान चीज़ ऐसे ही ख़र्च नहीं की जाती। चार लाइन सुन लो।
—है जायं! सुना।
—क्यों तू आवेग का ज़ख़ीरा है? हर समय आत्मा अधीरा है! क्रोध को व्यर्थ ख़र्च मत करना, क्रोध तो कोहिनूर हीरा है!
—वाह लल्ला वाह!
—कोहिनूर हीरा दोबारा कहां से लाओगे? बाद वाले क्रोध तो ईंट-पत्थर बन जाते हैं। इधर से फेंकोगे तो दूसरी तरफ से भी आएंगे। मूल्यवान चीज़ दो कौड़ी की हो जाएगी। चचा, क्रोध आता है पानी के उबाल की तरह। एक उबाल में पानी शुद्ध हो जाता है, लेकिन पतीली के नीचे से आंच न हटाई तो सारा पानी भाप बन जाता है। पतीली काली पड़ जाती है।
—क्रोध तौ खुदई एक आग ऐ लल्ला।
—क्रोध अगर आग है तो उस पर पानी डालो। बुझा दो! लकड़ियों को सुलगने भी मत दो! आगे काम में आएंगी, वरना राख बन जाएंगी। बुजुर्ग लोग कह गए हैं कि क्रोध एक प्राणहारी आत्मघाती शत्रु है। मित्र-मुखी शत्रु है। ऊपर से लगेगा कि आपका दोस्त है, लेकिन अंदर-अंदर होगा आपका दुश्मन, क्योंकि क्रोधी मनुष्य कार्य-अकार्य का विचार नहीं करता। कथनीय अकथनीय कुछ नहीं सोचता। क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, इसका निर्णय तब किया जाय जब क्रोध न हो, तो ज़्यादा अच्छा है।
—तू तौ फिर प्रबचन दैन लगौ भइया!
—क्रोधित होकर कह रहे हो या सम्मान दे रहे हो? तुम्हारा कुछ पता नहीं चलता चचा! इतना जानता हूं कि तुम्हें जब क्रोध आता है तो मुस्कुरा कर बातें करते हो। ये तुम्हारे बड़प्पन की निशानी है।
—लल्ला! हम तौ इत्तौ जानैं कै क्रोध अज्ञान ते पैदा होय और अहंकार ते बढ़ै।
—सार बात तो तुमने कह दी चचा, अब मैं इसके आगे क्या बोलूं? बहुत सही कहा। अहंकारी को बड़ी जल्दी क्रोध आता है। अहंकारी मूर्ख होता है, ये सब जानते हैं। ज्ञान का भ्रम उसको हो सकता है, लेकिन वह ये भूल जाता है कि उसके क्रोध से उसकी स्वयं की कीर्ति नष्ट होती है। जब आदमी को ग़ुस्सा आता है तो उसे दिखना बंद हो जाता है। चारों तरफ की फूट जाती हैं। भृकुटि वक्र हो जाती हैं। उसके अधरों के दोनों किनारे नीचे की ओर लटक जाते हैं। कल फोन पर गोपाल जी से बात हो रही थी, वे बोले ऐसे लोगों की संडासी मुद्रा होती है। मैंने कहा— हां, क्रोधी के अधरों के ध्रुवांत ऊपर नहीं उठते। संडासी मुद्रा में दूसरे के गले में संड़ासी डालने की फिराक में रहते हैं।
—अच्छा जे बता, सबते जादा बुरौ और नकारात्मक क्रोध कौन सौ ऐ?
—परिचित लोगों का क्रोध सबसे बुरा होता है चचा। जो जानते-बूझते नकारना शुरू कर देते हैं। कुटुंब टूट जाते हैं, समाज का नुकसान होता है। इस क्रोध में अहंकार के पीछे ईर्ष्या भी आ जुड़ती है। वह जुड़ती है स्वार्थों के कारण। ऐसे अहंकार का पोषण तो कभी नहीं करना चाहिए।
—और सकारात्मक क्रोध?
—जिसका व्यापक मनुष्यता के हित में कोई पवित्र मकसद हो। अपनी मलाई के लिए नहीं, दूसरों की भलाई के लिए आए। दुष्टों से समाज को बचाए। सिर्फ़ अपने स्वार्थ-राग नहीं गाए। चेहरे को विकृत न करे, तेजस्विता दिखाए। कांटेदार बबूलों की तरह लहूलुहान न करे, ‘कलगी बाजरे की’ नचाए। अपनी कौंध से विध्वंस न करे, बिजली की शीघ्र अर्थिंग हो जाए। चचा, क्रोध होना चाहिए, बाजरे की बाली पर बरखा की बूंद की तरह, जो बाली के बालों पर पल भर भी नहीं ठहरती, ढलकते-ढलकते जड़ों में पंहुच जाती है। जिससे दमकता है पौधा। अन्यथा इंसान औंधा। चचा! विचार है कि नहीं सौंधा?
—चकाचक्क!