—चौं रे चंपू! दुनिया जमाने में का हलचल ऐ?
—चचा, महा प्यार महोत्सव, यानी चौदह फरवरी, यानी वेलैंटाइन डे, जिसे पंडित ओम व्यास प्रेम चौदस कहते हैं, आने वाली है। तीन दिन रह गए हैं। एक टीवी चैनल ने हड़कंप मचाया हुआ है। आने वाले चार दिन आपके बच्चों पर भारी। संकट मंडरा रहा है नौनिहालों पर। अपने बच्चों से हाथ धो बैठेंगे, अगर वे कंप्यूटर पर बैठे। वे लड़के जिनकी गर्ल फ्रेंड नहीं हैं और वे लड़कियां जिनके बॉय फ्रेंड नहीं हैं, एक भयंकर बीमारी की चपेट में आने वाले हैं।
—का नाम बतायौ बीमारी कौ?
—स्पीड डेटिंग चचा। तुम्हारे ज़माने में यह बीमारी नहीं थी। यह ऐसी वेबसाइट है जो युवा होते बच्चों को फांसती है। इन बालकों में आमने-सामने प्रेम प्रस्ताव रखने की हिम्मत चूंकि नहीं होती, इस तरह की वेबसाइट्स हौसला देती हैं। लड़कियां अजनबी लड़कों से और लड़के अजनबी लड़कियों से प्रयोग बतौर बिना संकोच मिलेंगे। नेह के साथ देह की भाषा में भी बात कर सकते हैं। अनर्थ हो जाएगा, प्रलय आ जाएगी।
—जे कोई नई बीमारी नायं, तू नई मानैं का?
—मैं तो एक चैनल की बात कर रहा था। युवा होते किशोरों में चैन कहां होता है। एक तो वसंत की ऋतु, ऊपर से बाबा कामदेव का शर-संधान, ऐसे में बाबा रामदेव या बाबा नामदेव की कौन सुनेगा?
—चम्पू! अगर तोय बाबा कामदेव की स्पीच लिखनी होय, तौ तू का लिखैगौ?
—वैरी ईज़ी चचा।
—चल सिंहासन पै बैठ जा और कामदेव की तरह बोल।
—मैं कभी सिंहासन पर नहीं बैठा। मैं तो हृदयों पर राज करता हूं। दिल-द्वार से प्रविष्ट होकर मनुष्य के संपूर्ण अस्तित्व पर विराजता हूं। मेरा साम्राज्य व्यापक है। मैं काष्ठ की कुर्सी पर नहीं बैठने वाला। उस पर उल्लू बैठते हैं। मैं तो लल्लू के कलेजे में, लल्ली के भेजे में बैठता हूं। मेरा प्रवेश निर्बाध है। लड़की सोती है, बेख़बर सोती है, मां आती है और उसे ढक देती है। इसे कोई देख न ले। क्या वह उसके सपनों को ढक सकती है? मैं सपनों में प्रवेश कर जाता हूं। सपने की बेपर्दगी को न मां ढक सकती है न बाप। क्या समझे आप?
—समझ रए ऐं, समझ रए ऐं, बोले जा!
—सिंहासन की बात न करना मुझसे। मैं सिर्फ़ महलों में ही नहीं रहता। उन झोंपड़ियों की ओर देखो। वहां जो श्रमिक युवक-युवतियों के जोड़े हैं, उनमें भी रहता हूं मैं। भिक्षा मांगने वाले और रिक्शा चलाने वाले के अंदर भी हूं। तुम समझते हो केवल कंप्यूटर चलाने वालों में रहता हूं। नहीं, नहीं, नहीं! रिक्शे वाला युवक जब अपनी दिलरुबा को बिठा कर ले जाएगा तो उसके पैडल हवा से बातें करेंगे। इस ऋतु , इस उम्र और इस मस्ती का कोई मुकाबला नहीं।
—हां, डुकरिया ऊ नाचै, जब होय बसंत की पांचै।
—पहरे हर युग में बिठाए गए। क्या कोई मुझे रोक पाया? मैं विदेह हूं, पर युवाओं की धड़कन बनकर देह में प्रवेश करता हूं। मैं स्नेह की झड़ी हूं। जिज्ञासाओं की लड़ी हूं। मेरे धनुष के वाण पुष्पों से बने हैं। हार बनकर प्रहार करते हैं। मेरा मामला विचित्र है। कंकड़ी हो, सीटी हो, चिट्ठी हो या कंप्यूटर, ये सब तो प्रारंभिक माध्यम भर हैं। मेरा प्रेमाचारी संवाद तो नयनाचार से प्रारंभ होता है। नयन चार होटल हैं। ‘बिना प्रत्यंचा की भौंह की कमान हैं, औ’ तिरछी चितवन के टेढे़ से बान हैं, सीखी अनोखी धनुर्विद्या कहां से है, चंचल है चित्त पर अचूक संधान है’। एक शायर ने कहा है— ख़ता करते हैं टेढ़े तीर, ये कहने की बातें हैं, वो देखें तिरछी नज़रों से, ये सीधे दिल पे आते हैं।
—भाषण से शायरी पे आ गया चंपू।
—मैं कहीं से कहीं जा सकता हूं। ये ऑर्कुटिंग, स्पीड डेटिंग मेरे धनुष के नए वाण हैं। माताओ और पिताओ! चाहो तो निश्चिंत रहो, चाहो तो डर जाओ। बच्चों पर भरोसा रखो। ये हर युग जैसे ही बच्चे हैं। बच्चे सदा ऐसे ही होते हैं। कहीं-कहीं कच्चे लेकिन सच्चे। वेल इन टाइम मैं वेलैंटाइन बनकर इनके पास जाता हूं। माताओ पिताओ डरो नहीं। भवानी दादा ने लिखा था—
तुम डरो नहीं, वैसे डर कहां नहीं है,
कुछ ख़ास बात पर डर की यहां नहीं है।