—चौं रे चम्पू! कछू नई-पुरानी सुना, चुप्प चौं ऐ?
—चचा, नई तो ये कि जल-पुरुष राजेंद्र सिंह से मुलाक़ात हुई और पुरानी ये कि मैं एक पुरानी पंक्ति पर अटक गया। इन दिनों इतनी बरसात हो रही है, फिर भी पीने के पानी का संकट है। जगह-जगह बुरा हाल है। इतनी बरसात के बावजूद अकाल है। एक गीत की प्रथम दो पंक्तियों में दूसरी तो याद थी, पहली याद नहीं आ रही थी।
—तू दूसरी ई सुना।
—दूसरी पंक्ति है— ‘यही चमन को अचरज भारी, पानी कहां चला जाता है?’ किशोरावस्था में यह गीत सुना था, धुन भी याद है। मसला पहली लाइन का था। मैं सोचने लगा गोपाल सिंह नेपाली की है या शिशुपाल शिशु की, बच्चन जी की तो नहीं ही है। चचा उदय प्रताप सिंह जी से पूछा। वे बोले— ‘पंक्ति तो याद आ रही है, लेकिन कवि कौन है, कुछ समझ में नहीं आ रहा। सोम ठाकुर जी से पूछा। वे तपाक से बोले— ‘यह पंक्ति ग्वालियर वाले आनन्द मिश्र की है।’ लेकिन पहली पंक्ति? इस पर वे भी मौन हो गए, लेकिन चचा, जैसे ही सोम जी ने आनन्द मिश्र का नाम बताया, मुझे पहली पंक्ति का आधा हिस्सा याद आ गया। सन चौंसठ-पैंसठ की बात होगी। उनका चेहरा अब मेरे सामने था। वे आकाश की ओर देख कर गीत शुरू किया करते थे— ‘बादल इतना बरस रहे हैं…’, लेकिन इसके आगे क्या?
—हम पानी कूं तरस रए हैं…!
—नहीं चचा नहीं! पानी दूसरी पंक्ति में आ चुका, अब पहली में नहीं आ सकता। कल भोपाल में मिले ग्वालियर वाले प्रदीप चौबे। उन्होंने कहा कि ग्वालियर के पुराने लोगों में दामोदर जी बता सकते हैं, आनंद मिश्र के छोटे भाई प्रकाश मिश्र तो अभी सो कर न उठे होंगे। फोन लगाया। दामोदर जी के यहां घण्टी बजती रही। मैंने कहा बैजू कानूनगो को ट्राई करिए! बात बन गई। उन्होंने तो पूरा गीत सुना दिया— ‘बादल इतना बरस रहे हैं, फिर भी पौधे तरस रहे हैं, यही चमन को अचरज भारी, पानी कहां चला जाता है।’ वाह चचा वाह! सुन कर आनंद आ गया। वाह आनंद मिश्र वाह! मैंने कवि-जगत के जलपुरुष आनंद मिश्र को मन ही मन प्रणाम किया, जिन्होंने अबसे पचास वर्ष पहले यह गीत लिखा था।
—और जल-पुरुस राजेंद्र सिंह?
—वे व्यवहार-जगत के जल-पुरुष हैं। पानी के लिए ज़बरदस्त सकर्मक चेतना रखते हैं। इनके बारे में बताया मेरी शिष्या पायल ने। एनडीटीवी में काम करती है। राजेन्द्र सिंह जल संरक्षण के घनघोर समर्थक हैं। कहीं इन्हें कहीं वाटरमैन कहा जाता है, कहीं पानी बाबा। सरकारी नौकरी छोड़कर इन्होंने राजस्थान के ग्यारह जिलों के आठ सौ पचास गांवों में चैकडेम बनाकर वर्षा जल संरक्षण का बहुत ज़ोरदार काम किया। सूख गई नदियों के पुनरूत्थान के लिए जुट गए। ग्रामीणों को जल के प्रति आत्मनिर्भर बनाया। और चचा, जब भी कोई अच्छा काम करता है तो इनाम भी मिलते हैं। बहुत सारे सम्मान मिले, मैगसैसै पुरस्कार से नवाजे गए।
—मुलाकात भई तौ वो का बोले?
—वे कहने लगे कि ये देश बड़ा अद्भुत है जो नदियों को मां कहता है, लेकिन पिछले नब्बे वर्षों में जिसे हम विकास कहते हैं उसने हमारे ज्ञान की विकृति, विस्थापन के साथ एक तरह से हमारे संस्कार का विनाश शुरू कर दिया। जिसे हम मां कहते हैं उसे हमने मैला ढोने वाली मालगाड़ी बना दिया। अधोभूजल को ट्यूबवैल, बोरवैल और पम्प लगा कर सुखा दिया। नदियां मरने लगीं।
—तौ राजेन्द्र सिंह नै का कियौ?
—चाचा, उन्होंने तरह-तरह की तकनीकों से ग्रामीण क्षेत्रों में जलसंरक्षण के कमाल के काम किए। जनचेतना अभियान छेड़ दो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है। उन्होंने कहा कि बरसात के बाद पानी जब बहुत तेज दौड़े तो उससे कहो धीमे चले, जब धीमे चलने लगे तो कहो कि रैंगे, और जब वह रैंगने लगे तो कहो कि ठहर जा और जब वह ठहर जाएगा तो जहां-जहां धरती का पेट खुला मिलेगा वहां-वहां बैठ जाएगा। फिर ये अचरज नहीं होगा जो पचास साल पहले आनन्द मिश्र को हुआ था कि पानी कहां चला जाता है। पानी कहीं नहीं जाता। हम उसको धरती के गर्भ में सुरक्षित रखना सीख लें बस।