—चौं रे चम्पू! का ढूंढ रयौ ऐ?
—थोड़ी-सी जगह ढूंढ रहा हूं चचा।
—कौन के ताईं?
—गांधी जी के लिए। करैंसी नोटों पर उनके लिए अब जगह कम पड़ती जा रही है। आर.बी.आई. परेशान है कि इस आदरणीय बुढउ को कहां रखा जाए?
—चौं जगह कम कैसै परि गई रे?
—चचा संविधान की आठवीं अनुसूची में पंद्रह भाषाएं थीं। अभी नोटों पर पंद्रह ही चल रही हैं। फिर हो गईं बाईस। सात भाषाएं बढ़ाने का मामला ही टीस का था, अब भाषाई पहलवान अड़तीस अतिरिक्त भाषाओं का प्रस्ताव लेकर आ गए हैं। यानी, कुल हो जाएंगी साठ। खतम हो जाएगा गांधीजी का ठाठ। बताओ कहां जाके बिछाएंगे खाट। हर नोट पर साठ भाषाओं की सूची आया करेगी। अभी तो नोट पर गांधी जी डांडी मार्च निकालते दिख रहे हैं। भाषाओं की संख्या देखकर उन्हें अपनी यात्रा किसी और दिशा में मोड़नी पड़ेगी। वे भी सोचेंगे कि भाषाओं का मामला नाजुक होता जा रहा है। कौन इस झमेले में पड़े।
—काई दोस्त के यहां चले जाएं।
—दोस्त भी कहां हैं उनके। अपने परिचित ख़ास लोगों के पास जाना नहीं चाहते। आम जन से उम्मीदें रखते हैं। इसीलिए तो मैं तुम्हारे पास आकर उनके लिए जगह ढूंढ रहा हूं। भाषाएं नोट पर अपने लिए जगह ढूंढ रही हैं। लोग भाषाओं में अपने लिए जगह ढूंढ रहे हैं। जगह अपने लिए जगह ढूंढ रही है। कोई किसी को जगह नहीं देना चाहता। आपस में बात नहीं करना चाहता। अपनी-अपनी भाषा के नाम पर गुम्माटा मार लिया है और संविधान पर चढ़ बैठे हैं। गांधी जी अल्पसंख्यकों के हितैषी थे, इसका मतलब यह नहीं कि वे बहुसंख्यकों का हित नहीं चाहते थे। वे तो देश को एकसंख्यक बनाना चाहते थे। हम सब एक हैं तो एक ही भाषा बोलें। वे हिंदी और हिंदुस्तानी की वकालत करते थे। वे स्वयं गुजराती भाषी थे, पर ये मानते थे कि हिंदी ही पूरे देश को जोड़ सकती है। अब उनका जोड़-जोड़ दुख रहा है। क्या जोड़े, क्या घटाएं? आदमी राज़ी होने से पहले नाराज़ी दिखाता है। शासन को अपने वोटों की चिंता है। नोटों पर छपे गांधी जी की क्यों होगी? पंद्रह की वजह साठ छप जाएं, क्या फर्क पड़ता है? कोस कोस पै पानी बदले, आठ कोस पै बानी। इस तरह से तो भाषाओं की संख्या हज़ारों में नहीं लाखों में बैठेगी।
—नोट पे भासा कौन पढ़ै?
—कोई नहीं पढ़ता चचा। भाषाओं के सूरमा भी नहीं पढ़ते। सबके सब या तो हिंदी पढ़ते हैं या अंग्रेज़ी। पर जनतंत्र है चचा! करोड़ों की आबादी में एक भी आवाज़ उठे तो सुनी जानी चाहिए। उपेक्षा नहीं की जा सकती, पर अपेक्षाएं तत्काल पूरी कर दी जाएं, यह भी तो ज़रूरी नहीं है। पता करना होगा कि किसे भाषा का दर्जा दिया जा सकता है और कौन-सी सिर्फ बोली है। एक भाषा के अनेक रूप होते हैं जो बोली कहलाते हैं। हिंदी की कितनी ही बोलियां हैं। मैं देशभर में घूमा हूं। किसी भी आदमी से दो चार मिनट की बातचीत से पता चल जाता है कि रामपुर का है या रायपुर का, मुजफ्फरनगर का है या मुजफ्फरपुर का। आगरा, हाथरस, मथुरा, भरतपुर, डीग, कामा, कोसी, वृंदावन, इगलास, अलीगढ़, कासगंज, सभी जगह ब्रज भाषा बोली जाती है, पर रूप अलग-अलग हैं। भाषागत पहचान से इंसान की अस्मिता जुड़ गई तो झगड़ा मुहल्ले-मुहल्ले तक पहुंच जाएगा। भाषा संवाद के लिए होती है चचा। ऐसे झगड़े तो संवादहीनता बढ़ा देंगे। एक होती है प्रेम की भाषा, वह दिलों पर छपी होती है, नोट पर नहीं। गांधी जी दुःखी हैं चचा, क्या किया जाए?
—बगीची पै उनकौ स्वागत ऐ। हिंदुस्तानी में बात करिंगे उनते। पर जे बता उन अड़तीस भासान में अपनी ब्रजभासा है कै नायं?
—ब्रजभाषा कहां से होगी? ब्रजवासी सदा के संतोषी। भाषा को विवाद का कारण नहीं मानते। विपुल साहित्य है। हिंदी की जननी मानी जाती है। लेकिन अब शायद इसे हिंदी की बोली मानकर ही खारिज कर दिया जाय।
—सामिल करा। साठ की जगह इकसठ है जांगी।
—तो आप मुझे भी लड़ाई के मैदान में उतारना चाहते हैं? रहने दीजिए चचा, मसले अपने आप सुलझेंगे। बहुत सारी भाषाओं की लिपि तो एक ही है— देवनागरी।
—तौ गांधी जी ते कह दै, परेसान न होंय। नोट पै बने रहें।
—हां, भाषाओं को यदि नोट के कागज़ों पर स्थान नहीं मिला तो वे अपने दिल में तो दे ही सकते हैं।