मज़ाक करना कोई मज़ाक नहीं है।
(हंसी ब्याज पर आती है न कि मूल पर)
यों कभी-कभी
हंसी भी आती है अकेले में,
ये हंसी कुछ ऐसी होती है
जैसे मसाला छिपा रहता है
करेले में।
एक बार ब्रह्मा जी
अपने ऑफ़िस में अकेले बैठे
ढूंढ रहे थे लेखनी,
क्योंकि अशोक की
फ़ाइल बंद करके
चक्रधर की थी देखनी।
बहुत ढूंढी,
बहुत ढूंढी,
नहीं मिली,
पर अचानक उस एकांत में
उनकी बत्तीसी खिली,
क्योंकि लेखनी लगी थी
उनके कान पर,
और हम यह सोचकर
बलिहारी हैं
ब्रह्मा जी की मुस्कान पर
कि हंसी आती है
अपनी भूल पर,
हंसी ब्याज पर आती है
न कि मूल पर।
इसलिए वो हंसी
अच्छी जो अपने पर आए,
वो हंसी अधम
जो किसी को सताए।
कमज़ोर पर हंसने में
कोई धाक नहीं है,
और मित्रो… कहते हैं कि
मज़ाक करना
कोई मज़ाक नहीं है।